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द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण | ३१
बहुत प्राचीन समय में, जबकि जैनियों का हृदय सच्ची धर्मभावनासे प्रेरित होकर उदार था और जैनधर्मकी उदार (अनेकान्तात्मक) छत्रछाया के नीचे सभी लोग एकत्र होते थे, मातंग ( चाण्डाल) भी जैनमंदिरोंमें जाया करते थे और भगवान का दर्शन-पूजन करके अपना जन्म सफल किया करते थे । इस विषय का एक अच्छा उल्लेख श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराण में पाया जाता है और वह इस प्रकार है:सस्त्रोकाः खेचरा याताः सिद्धकूटजिनालयम् । एकदा वंदितुं सोपि शौरिर्मदन वेगया || २ || कृत्वा जिनमहं खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् ! तस्थुः स्तंभानुप्राश्रित्य बहुवेषा यथायथम् || ३ || विद्युद्वेगोपि गौरीणां विद्यानां स्तंभमाश्रितः । कृतपूजास्थितः श्रीमान्स्वनिकायपरिष्कृतः ॥ ४ ॥ पृष्टया वसुदेवेन ततो मदनवेगया । विद्याधरनिकायास्ते यथास्वमिति कीर्तिताः ॥ ५ ॥
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श्रम विद्याधराद्यार्याः समासेन समीरिताः । मातंगानामपि स्वामिन्निकायान् श्रृणु वच्मि ते ॥ १४ ॥ नीलांबुदचमश्यामा नीलांबरवरस्रजः । - श्रमी मातंगनामानो मातंगस्तंभ संगताः ।। १५ ।। श्मशानास्थिकृतोत्तंसा भस्मरेणुविधूसराः । श्मशाननिलयास्त्वेते श्मशानस्तंभमाश्रिताः ॥ १६ ॥ नीलवैडूर्यवर्णानि धारयंत्यंवराणि ये ।
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