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द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण ।
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यदि चारुदत्त के कुटुम्बीजन, अपने इन गुणों और उदार परिगति के कारण, वसंतसेनाको चारुदत्त के पीछे अपने यहाँ आश्रय न देते बल्कि यह कहकर दुरकार देते कि 'इस पापिनी ने हमारे चारुदका सर्वनाश किया है, इसकी सूरत भी नहीं देखनी चाहिये और न इसे अपने द्वारपर खड़ेही होने देना चाहिये', तो बहुत संभव है कि वह निराश्रित दशामें अपनी माता के ही पास जाती और वेश्यावृत्ति के लिये मजबूर होती और तब उसका वह सुन्दर श्राविका का जीवन न बन पाता जो उन लोगों के प्रेमपूर्वक श्राश्रय देने और सद्व्यवहारसे बन सका है। इसलिये सुधार के अर्थ प्रेम, उपकार और सद्व्यव हार को अपनाना चाहिये, उसकी नितान्त श्रावश्यक्ता है । पापीसे पापीका भी सुधार हो सकता है परन्तु सुधारक होना चाहिये। ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जो स्वभाव से ही 'अयोग्य' हो परन्तु उसे योग्यताकी ओर लगाने वाला अथवा उसकी योग्यता से काम लेने वाला 'योजक' होना चाहिये - उसीका मिलना कठिन है । इसीसे नीतिकारोंने कहा है
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" अयोग्य: पुरुषोनास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ।"
जो जाति अपने किसी अपराधी व्यक्तिको जातिसे खारिज करती है और इस तरह पर उसके व्यक्तित्व के प्रति भारी घृणा और तिरस्कार के भावको प्रदर्शित करती है, समझना चाहिये, वह स्वयं उसका सुधार करने के लिये असमर्थ है, अयोग्य है, और उसमें योजक- शक्ति नहीं है। साथ ही, इस कृतिके द्वारा वह सर्वसाधारण में अपनी उस अयोग्यता और अशक्तिकी घोषणा कर रही है, इतना ही नहीं बल्कि अपनी स्वार्थसाधुता को भी प्रकट कर अयोग्य और असमर्थ जातिका, जो अपनेको थाम भी नहीं
रही है । ऐसी