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स्वतंत्रता संग्राम में जैन
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और प्रारम्भ हुआ संवाद का एक नया चरण। चाहे चंदेरी की सिद्धान्त-वाचना हो या ललितपुर की न्याय-विद्या-वाचना या मुंगावली की विद्वत्संगोष्ठी या फिर खनियांधाना की सिद्धान्त-वाचना, प्राचीन अवधारणाओं के नये और सरल अर्थ प्रतिपादित हए. परिभाषित हए और हए संप्रेषित भी जन-जन तक। यह तो प्रज्ञान का प्रभाषित होता वह पक्ष था, जिसकी रोशनी से दिग्-दिगन्त आलोकित हो रहा था। पर दूसरा-तीसरा....चौथा.... न जाने और कितने पथ/आयाम, साथ-साथ चेतना की ऊर्ध्वगामिता के साथ जुड़ रहे थे, साधक की प्रयोग धर्मिता को ऊर्जस्विता कर रहे थे - शायद साधक भी अनजान था अपने आत्म-पुरूषार्थी प्रक्रम से। चाहे संघस्थ मुनियों, क्षुल्लकों, ऐलकों की वैयावृत्ति का वात्सल्य पक्ष हो या तपश्चरण की कठिन
और बहुआयामी साधना, क्षुल्लक गुणसागर की आत्म-शोधन-यात्रा अपनी पूर्ण तेजस्विता के साथ अग्रसर रही, अपने उत्कर्ष की तलाश में। ___ महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग पर इकत्तीस मार्च उन्नीस सौ अठासी को क्षुल्लक श्री ने आचार्य श्री सुमतिसागर जी महाराज से सोनागिर सिद्धक्षेत्र (दतिया म.प्र.) में मुनि धर्म की दीक्षा ग्रहण की और तब आविर्भाव हुआ उस युवा, क्रान्तिदृष्टा तपस्वी का जिसे मुनि ज्ञानासागर के रूप में युग ने पहचाना और उनका गुणानुवाद किया।
साधना के निर्ग्रन्थ रूप में प्रतिष्ठित इस दिगम्बर मुनि ने जहाँ आत्म-शोधन के अनेक प्रयोग किए, साधना के नये मानदण्ड संस्थापित किए, उदात्त चिन्तन की ऊर्जस्वी धारा को प्रवाह मानकर तत्वज्ञान को नूतन व्याख्याओं से समृद्ध किया वहीं पर अपनी करूणा, आत्मीयता और संवेगशीलता को जन-जन तक विस्तीर्ण कर भगवान महावीर की "सत्वेषु मैत्री" की अवधारणा को पुष्पित, पल्लवित और संवर्द्धित भी किया। मध्यप्रदेश की प्रज्ञान-स्थली सागर में मुनिराज का प्रथम चातुर्मास, तपश्चर्या की कर्मस्थली बना और यहीं से शुरू हुआ आध्यात्मिक अन्तर्यात्रा का वह अर्थ जिसने प्रत्येक कालखण्ड में नये-नये अर्थ गढ़े और संवेदनाओं की समझ को साधना की शैली में अन्तर्लीन कर तात्विक परिष्कार के नव-बिम्बों के सतरंगी इन्द्रधनुष को आध्यात्मिक क्षितिज पर प्रतिष्ठित किया।
आगामी वर्षों में मुनि ज्ञानसागर जी ने जिनवाणी के आराधकों से स्थापित किया एक सार्थक संवाद ताकि आगम-ग्रन्थों में निबद्ध रहस्यों को सामान्य जनों तक बोधगम्य भाषा और शैली में सम्प्रेषित किया जा सके। सरधना, शाहपुर, खेकड़ा, गया, रांची, अम्बिकापुर, बड़ागांव, दिल्ली, मेरठ, अलवर, तिजारा, मथुरा आदि स्थानों पर विद्वत्-संगोष्ठियों के आयोजनों ने बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों के जहां एक ओर उत्तर खोजे वहीं दूसरी
और शोध एवं समीक्षा के लिए नये सन्दर्भ भी परिभाषित किये। अनुपलब्ध ग्रन्थों के पुनर्प्रकाशन की समस्या को इस ज्ञान-पिपासु ने समझा परखा और सराहा। इस क्षेत्र में गहन अभिरूचि के कारण सर्वप्रथम बहुश्रुत श्रमण परम्परा के अनुपलब्ध प्रामाणिक शोध-ग्रन्थ स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सर्जित साहित्य सम्पदा, "तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा" (चारों भाग) के पुनर्प्रकाशन की प्रेरणा की, जिसे सुधी श्रावकों ने अत्यल्प समयावधि में परिपूर्ण भी किया।
पुनर्प्रकाशन यह अनुष्ठान श्रमण-परम्परा पर काल के प्रभाव से पड़ी धूल को हटा कर उन रत्नों को जिनवाणी के साधकों के सम्मुख ला रहा है जो विस्मृत से हो रहे थे। पूज्य गुरूदेव की मंगल प्रेरणा से प्राच्य
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