Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पंचाहिँ ठाणेहिं केवली उदिण्णे परीसहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा जाव अहियासेज्जा तंजा - खित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा तहेव जाव अवहरइ वा । दित्त चित्ते खलु अयं पुरिसे, तेणं मे एस पुरिसे अक्कोस वा जाव अवहरइ वा । जक्खाइट्ठे खलु अयं पुरिसे, तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा जाव अवहरइ वा । ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवइ, तेण मे एस पुरिसे. अक्कोस वा जाव अवहरइ वा । ममं च णं सम्मं सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहियासमाणं पासित्तां बहवे अण्णे छउमत्था समणा णिग्गंथा उदिण्णे परीसहोवसग्गे एवं सम्मं सहिस्संति जाव अहियासिस्संति । इच्चेएहिं पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिण्णे परीसहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा जाव अहियासेज्जा ॥ १२ ॥
कठिन शब्दार्थ - उदिणे - उदय में आये हुए, परीसहोवसग्गे - परीषह उपसर्गों को, सम्मं - सम्यक् प्रकार से, सहेज्जा सहन करता है, खमेज्जा क्षमा करता है, तितिक्खेज्जा अदीन भाव से सहता है, अहियासेज्जा - चलित नहीं होता है, उम्मत्तगभूए उन्मत्त बना हुआ है, अक्कोसड़ आक्रोश करता है, अवहसइ - हंसता है, णिच्छोडेड़ - कंकर फेंकता है, णिब्धंछेड़ - निर्भत्सना करता है, रुंभइ - रोकता है, छविच्छेयं चर्मछेदन, उद्दवेड़ - उद्वेग उपजाता है, आछिंदइ- छीनता है, विछिंदर- दूर फेंकता है, भिंदड़ - फाडता है, अवहरइ चुराता है, जबखाइट्टे - यक्षाविष्ट, तब्भववेयणिजे- इसी भव में वेदने योग्य, एगंतसो एकान्त रूप से, खित्तचित्ते - क्षिप्त चित्त वाला, दित्तचित्ते दृप्त चित्त वाला।
भावार्थ - पांच कारणों से छद्मस्थ पुरुष उदय में आये हुए परीषह उपसर्गों को सम्यक्प्रकार से सहन करता है, क्षमा करता है, अदीनभाव से सहता है और चलित नहीं होता है यथा सम्भव है यह पुरुष कर्मों के उदय से उन्मत्त बना हुआ है, इसलिए यह पुरुष मुझे आक्रोश करता है, हंसता है, कंकर फेंकता है, कुवचनों द्वारा निर्भत्स्ना करता है, बांधता है, रोकता है, चर्मछेद करता है, मूर्च्छित करता है अथवा उद्वेग उपजाता है अथवा वस्त्र पात्र कंबल तथा रजोहरण को छीनता है, दूर फेंकता है, फाड़ता है तथा चुराता है । सम्भव है यह पुरुष यक्षाविष्ट है, इसीलिए यह पुरुष मुझे आक्रोश करता है यावत् मेरे वस्त्र पात्र आदि को चुराता है । मेरे इसी भव में वेदने योग्य कर्म उदय में आये हैं, इसीलिए यह पुरुष मुझे आक्रोश करता है यावत् मेरे वस्त्र पात्रादि चुराता है। मेरे उदय में आये हुए कर्मों को सम्यक् प्रकार से सहन न करते हुए, क्षमा न करते हुए, अदीन भाव से सहन न करते हुए, अविचलित भाव से सहन न करते हुए मुझे क्या होगा ? मेरे एकान्त रूप से पाप कर्म का बन्ध होगा । मेरे उदय में आये हुए कर्मों को सम्यक् प्रकार से सहन करते हुए यावत् अविचलित भाव से सहन करते हुए मुझे क्या होगा ? मेरे
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श्री स्थानांग सूत्र
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