Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अप्काय आदि की अपेक्षा परकाय शस्त्र है । २. विष स्थावर और जंगम के भेद से विष दो प्रकार का है । ३. लवण • नमक । ४. स्नेह - घी, तेल आदि । ५. खार-रवारा ६. अम्ल - काञ्जी अर्थात् एक प्रकार का खट्टा रस जिसे हरे शाक आदि में डालने से वह अचित्त हो जाता है । ये छह द्रव्य शस्त्र हैं । आगे के चार भाव शस्त्र हैं। वे इस प्रकार हैं- ७. दुष्प्रयुक्त मन, ८. दुष्प्रयुक्त वचन, ९. दुष्प्रयुक्त शरीर और १०. अविरति - किसी प्रकार का प्रत्याख्यान न करना अप्रत्याख्यान या अविरति कहलाता है। यह भी एक प्रकार का शस्त्र है ।
गुरु शिष्य या वादी प्रतिवादी के आपस में शास्त्रार्थ करने को वाद कहते हैं । वाद के दस दोष कहे गये हैं यथा १. तज्जात दोष- गुरु या प्रतिवादी के जन्म, कुल, जाति किसी निजी बात में दोष निकालना अर्थात् व्यक्तिगत आक्षेप करना । २. मतिभंग दोष - बुद्धि का भङ्ग हो जाना, अर्थात् जानी हुई बात को भूल जाना या समय पर उसका याद न आना । ३. प्रशास्तृ दोष सभा की व्यवस्था करने वाले सभापति या किसी प्रभावशाली सभ्य द्वारा पक्षपात के कारण प्रतिवादी को विजयी बना देना अथवा प्रतिवादी के किसी बात को भूल जाने पर उसे बता देना । ४. परिहरण दोष - अपने सिद्धान्त के उसी को कहना परिहरण दोष
"अनुसार अथवा लोकरूढ़ि के कारण जिस बात को नहीं कहना चाहिए, टीके
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है 1 अथवा सभा के नियमानुसार जिस बात को कहना चाहिए उसे न कहना या दोष का ठीक ठीक परिहार किये बिना जात्युत्तर देना परिहरण दोष है । लक्षण दोष बहुत से पदार्थों में से किसी एक पदार्थ को अलग करने वाला धर्म लक्षण कहलाता है । जैसे जीव का लक्षण उपयोग है । लक्षण के तीन दोष हैं :- अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव । ६. कारण दोष - जिस हेतु के लिए कोई दृष्टान्त न हो । पक्ष अर्थ का निर्णय करने के लिए सिर्फ उपपत्ति अर्थात् युक्ति को कारण कहते हैं । साध्य के बिना भी कारण का रह जाना कारण दोष है । ७. हेतु दोष- जो साध्य के होने पर हो और उसके बिना न हो तथा जो साध्य का ज्ञान करावे उसे हेतु कहते हैं। हेतु के तीन दोष असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक । ८. संक्रामण दोष प्रस्तुत विषय को छोड़ कर अप्रस्तुत विषय में चले जाना अथवा अपना मत कहते कहते उसे छोड़ कर प्रतिवादी के मत को स्वीकार कर लेना तथा उसका प्रतिपादन करने लगना संक्रामण दोष है । ९. निग्रह दोष - छल आदि से दूसरे को पराजित करना निग्रह दोष है । १०. वस्तु दोष - जहाँ साधन और साध्य रहें ऐसे पक्ष को वस्तु कहते हैं । पक्ष के दोषों को वस्तु दोष कहते हैं । प्रत्यक्षनिराकृत, आगमनिराकृत, लोकनिराकृत आदि इसके कई भेद हैं। जिसके कारण वस्तुओं में भेद हो अर्थात् सामान्य रूप से ग्रहण की हुई बहुत सी वस्तुओं में से किसी व्यक्ति विशेष को पहिचाना जाय उसे विशेष कहते हैं। विशेष का अर्थ हैं
पहले सामान्य रूप से वाद के दस दोष बताये गये हैं । यहाँ उन्हीं के विशेष टोक्ति या भेद ।
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स्थान १०
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दस
गये हैं यथा
वस्तुदोष - पक्ष के दोष को वस्तु दोष कहते हैं । सामान्य दोष की अपेक्षा वस्तुदोष विशेष है ।
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