Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 374
________________ स्थान १० ३५७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 दस कारणों से दुषमा काल आया हुआ जाना जाता है यथा - अकाल में वर्षा होती है, समय पर वर्षा नहीं होती है असाधु यानी पाखण्डी मिथ्यात्वी पूजे जाते हैं साधु अर्थात् सज्जन पुरुषों की पूजा नहीं होती है । मनुष्य गुरुजनों के प्रति दुष्ट भाव रखते हैं । शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श अमनोज्ञ होते हैं । दस कारणों से सुषमा काल आया हुआ जाना जाता है यथा - अकाल में वर्षा नहीं होती हैं इत्यादि दस बातें दुषमा काल से विपरीत होती है यावत् शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श मनोज्ञ होते हैं। सुषमसुषमा आरे में दस प्रकार के वृक्ष युगलियों के उपभोग में आते हैं यथा - मत्तङ्गा - शरीर के लिए पौष्टिक रस देने वाले । भृताङ्गा - बर्तन आदि का काम देने वाले । त्रुटिताङ्गा - वादिंत्र का काम देने वाले । दीपाङ्गा - दीपक का काम देने वाले । ज्योतिरङ्गा - अग्नि का काम देने वाले तथा सूर्य के समान प्रकाश देने वाले । चित्राङ्गा - विविध प्रकार के फूल देने वाले । चित्ररसा - विविध प्रकार का रस एवं भोजन देने वाले । मण्यङ्गा - आभूषण देने वाले । गेहाकारा - मकान के आकार परिणत हो जाने वाले अर्थात् मकान की तरह आश्रय देने वाले । अनग्ना - वस्त्र आदि का काम देने वाले । इन दस प्रकार के वृक्षों से युगलियों की आवश्यकताएं पूरी होती रहती है । . विवेचन - कुरुक्षेत्र दस - जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से उत्तर और दक्षिण में दो कुरु हैं। दक्षिण .दिशा के अन्दर देवकुरु है और उत्तर दिशा में उत्तरकुरु है। देवकुरु पाँच हैं और उत्तरकुरु भी पांच हैं। गजदन्ताकार (हाथी दाँत के सदृश आकार वाले) विद्युत्प्रभ और सौमनस नामक दो वर्षधर पर्वतों से देवकुरु परिवेष्टित हैं। इसी तरह उत्तरकुरु गन्धमादन और माल्यवान् नामक वर्षधर पर्वतों से घिरे हुए हैं। ये दोनों देवकुरु उत्तरकुरु अर्द्ध चन्द्राकार हैं और उत्तर दक्षिण में फैले हुए हैं। उनका प्रमाण यह हैग्यारह हज़ार आठ सौ बयालीस योजन और दो कला ११८४२. का विस्तार है और ५३००० योजन प्रमाण इन दोनों क्षेत्रों की जीवा (धनुष की डोरी) है। - दस महर्द्धिक देव - महान् वैभवशाली देव महर्द्धिक देव कहलाते हैं। उनके नाम - १. जम्बूद्वीप का अधिपति अनादृत देव २. सुदर्शन ३. प्रियदर्शन ४. पौण्डरीक ५. महापौण्डरीक और पाँच गरुड वेणुदेव कहे गये हैं। , अवसर्पिणी काल के सुषमसुषमा नामक प्रथम आरे में युगनिकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाले दस प्रकार के वृक्ष होते हैं। ये वनस्पति जाति के होते हैं। थोकड़ा वाले इन वृक्षों को 'कल्पवृक्ष' कह देते हैं परन्तु ये कल्पवृक्ष नहीं हैं। किन्तु वनस्पतिकायिक वृक्ष हैं। शास्त्रकार ने यहाँ मूल में 'रुक्खा' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है 'वृक्ष'। अतः इनके कल्पवृक्ष कहना आगमानुकूल नहीं है। कुलकर, वक्षस्कार पर्वत जंबूहीवे दीवे भारहे वासे तीयाए उस्सप्पिणीए दस कुलगरा होत्था तंजहा - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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