Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 366
________________ स्थान १० ३४९ स्थिति दस सागरोपम की कही गई है । पांचवीं धूमप्रभा नरक में नारकी जीवों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम की कही गई है । असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमार तक भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है । बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है। वाणव्यन्तर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है । पांचवें ब्रह्मदेवलोक में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की कही गई है । छठे लान्तक देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम की कही गई है। विवेचन - दस प्रकार के नैरयिक जीव - समय के व्यवधान (अन्तर) और अव्यवधान आदि की अपेक्षा नारकी जीवों के दस भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अनन्तरोपपन्नक - अन्तर व्यवधान को कहते हैं। जिन नारकी जीवों को उत्पन्न हुए अभी एक समय भी नहीं बीता है अर्थात् जिनकी उत्पत्ति में अभी एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ा है वे अनन्तरोपपत्रक नारकी कहलाते हैं। . २. परम्परोपपन्नक - जिन नारकी जीवों को उत्पन्न हुए दो तीन आदि समय बीत गये हैं। उनको परम्परोपपन्नक नारकी कहते हैं । ये दोनों भेद काल की अपेक्षा से हैं। . ३. अनन्तरावगाढ - विवक्षित प्रदेश (स्थान) की अपेक्षा से अनन्तर अर्थात् अव्यवहित प्रदेशों के अन्दर उत्पन्न होने वाले अथवा प्रथम समय में क्षेत्र का अवगाहन करने वाले नारक जीव अनन्तरावगाढ कहलाते हैं। ४. परम्परावगाढ- विवक्षित प्रदेश की अपेक्षा व्यवधान से पैदा होने वाले अथवा दो तीन समय के पश्चात् उत्पन्न होने वाले नारकी परम्परावगाढ कहलाते हैं। .. ये दोनों भेद क्षेत्र की अपेक्षा से समझने चाहिए। ५. अनन्तरांहारक - अनन्तर (अव्यवहित) अर्थात् व्यवधान रहित जीव प्रदेशों से आक्रान्त अथवा जीव प्रदेशों का स्पर्श करने वाले पुद्गलों का आहार करने वाले नारकी जीव अनन्तराहारक कहलाते हैं। अथवा उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ग्रहण करने वाले जीवों को अनन्तराहारक कहते हैं। ६. परम्पराहारक - जो नारकी जीव अपने क्षेत्र में आए हुए पहले व्यवधान वाले पुद्गलों का आहार करते हैं या जो प्रथम समय में आहार ग्रहण नहीं करते हैं वे परम्पराहारक कहलाते हैं। उपरोक्त दोंनों भेद द्रव्य की अपेक्षा से हैं। ७. अनन्तर पर्याप्तक - जिनके पर्याप्त होने में एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ा है, वे अनन्तर पर्याप्तक या प्रथम समय पर्याप्तक कहलाते हैं। ८. परम्परा पर्याप्तक - अनन्तर पर्याप्तक से विपरीत लक्षण वाले अर्थात् उत्पत्ति काल से दो तीन समय पश्चात् पर्याप्तक होने वाले परम्परा पर्याप्तक कहलाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386