Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 351
________________ ३३४ श्री स्थानांग सूत्र १. नरक गति - नरक गति नाम कर्म के उदय से नरक पर्याय की प्राप्ति होना नरकगति कहलाती है। नरक गति को निरय गति भी कहते हैं। अय नाम शुभ, उससे रहित जो गति हो वह निरय गति कहलाती है। "निर्गतं अयः शुभं कर्म येभ्यः ते निरयाः" अर्थ - जिन स्थान में रहने वाले प्राणियों का शुभ कर्म निकल गया है अथवा अल्प रह गया है उनको निरय कहते हैं। नरक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकर की गयी है - __ "नगन् प्राणिन कायन्ति, रुदनं कारयन्ति इति नरकाः" - जहाँ प्राणियों को परमाधार्मिक देव रुदन करवाते हैं तथा दुःख से पीड़ित होकर प्राणी स्वयं रुदन करते हैं उन स्थानों को नरक कहते हैं। २. नरक विग्रह गति - नरक में जाने वाले जीवों की जो विग्रह गति ऋजु (सरल-सीधे) रूप से या वक्र (टेढ़े) रूप से होती है, उसे नरक विग्रह गति कहते हैं। इसी तरह ३. तिर्यंच गति ४. तिर्यंच विग्रह गति ५. मनुष्य गति ६. मनुष्य विग्रह गति ७. देव गति ८. देव विग्रह गति समझनी चाहिए। इन सब की विग्रह गति ऋजु रूप से या वक्र रूप से होती है। ९. सिद्धि गति - आठ कर्मों का सर्वथा क्षय करके लोकाग्र पर स्थित सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त करना सिद्धिगति कहलाती है। १०. सिद्धि विग्रह गति - अष्ट कर्म से विमुक्त प्राणी की आकाश प्रदेशों का अतिक्रमण (उल्लंघन) रूप जो गति अर्थात् लोकान्त प्राप्ति वह सिद्धि विग्रह गति कहलाती है। कहीं कहीं पर विग्रह गति का अपरनाम वक्र गति कहा गया है। यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के लिए तो उपयुक्त है, क्योंकि उन की विग्रह गति ऋजु रूप से और वक्र रूप से दोनों तरह होती है किन्तु अष्ट कर्म से विमुक्त जीवों की विग्रह गति वक्र नहीं होती। अथवा इस प्रकार व्याख्या करनी चाहिए कि पहले जो सिद्धि गति बतलाई गई है वह सामान्य सिद्धि गति कही गई है और दूसरी सिद्धि , अविग्रह गति अर्थात् सिद्धों की अविग्रह-अवक्र (सरल-सीधी) गति होती है। यह विशेष की अपेक्षा से कथित सिद्धि अविग्रह गति है। अतः सिद्धि गति और सिद्धि अविग्रह गति सामान्य और विशेष की अपेक्षा से कही गई है। _मुण्ड दस - जो मुण्डन अर्थात् अपनयन (हटाना) करे, किसी वस्तु को छोड़े उसे मुण्ड कहते हैं। इसके दस भेद हैं - १. श्रोत्रेन्द्रिय मुण्ड - श्रोत्रेन्द्रिय के विषयों में आसक्ति का त्याग करने वाला। २. चक्षुरिन्द्रिय मुण्ड - चक्षुरिन्द्रिय के विषयों में आसक्ति का त्याग करने वाला। ३. घाणेन्द्रिय मुण्ड - घ्राणेन्द्रिय के विषयों में आसक्ति का त्याग करने वाला। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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