Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ६
१३५
(अवाय) और ४. धारणा। प्रथम सामान्यतः अर्थ को ग्रहण करना अवग्रह है और तद्प मति अवग्रह मति कहलाती है। इसके छह भेद बतलाये गये हैं। अवग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानने वाली बुद्धि ईहा मति कहलाती है यह छह प्रकार की कही है। ईहा द्वारा जाने हुए पदार्थ का पूर्ण निर्णय करने वाली बुद्धि अवाय मति कहलाती है। अवाय द्वारा निर्णय किये हुए पदार्थ की बहुत लम्बे समय तक स्मृति रखना धारणा कहलाती है। इनके छह भेदों का वर्णन भावार्थ में दे दिया गया है।
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तप भेद . ___ छविहे बाहिरए तवे पण्णत्ते तंजहा - अणसणं, ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपरिच्चाए, कायकिलेसो, पडिसंलीणया । छविहे अब्भंतरिए तवे पण्णत्ते तंजहा - पायच्छित्त, विणओ, वेयावच्चं, तहेव सझाओ, झाणं, विउस्सग्गो । छविहे विवाए पण्णत्ते तंजहा - ओसक्कइत्ता, उस्सक्कइत्ता, अणुलोमइत्ता, पडिलोमइत्ता, भइत्ता, भेलइत्ता॥५१॥ . कठिन शब्दार्थ - बाहिरए - बाह्य, अणसणं - अनशन, ओमोयरिया - अवमोदरिका, भिक्खायरिया - भिक्षाचर्या, रसपरिच्चाए - रस-परित्याग, कायकिलेसो - कायाक्लेश, पडिसलीणयाप्रतिसंलीनता, अभंतरिए - आभ्यंतर, वेयावच्चं - वैयावृत्य, सज्झाओ - स्वाध्याय, झाणं - ध्यान, विउस्सग्गो- व्युत्सर्ग, विवाए - विवाद, ओसक्कइत्ता - पीछे हट कर-विलम्ब करके, उस्सक्कइत्ताउत्सुक होकर, अणुलोमइत्ता - अनुकूल करके, पडिलोमइत्ता - प्रतिकूल करके, भइत्ता - सेवा करके, भेलइत्ता- मिश्रण करके।
भावार्थ - तप.- शरीर और कर्मों को तपाना तप है। जैसे अग्नि में तपा हुआ सोना निर्मल होकर शुद्ध हो जाता है वैसे ही तप रूपी अग्नि से तपा हुआ आत्मा कर्ममल से रहित होकर शुद्ध स्वरूप हो जाता है। तप दो प्रकार का है - बाह्य तप और आभ्यन्तर तप। बाह्य शरीर से सम्बन्ध रखने वाले तप को बाह्य तप कहते हैं । बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है यथा - १. अनशन - आहार का त्याग करना यानी उपवास, बेला, तेला आदि करना अनशन तप है। २. अवमोदरिका यानी ऊनोदरी - जिसका जितना आहार है उससे कम आहार करना तथा आवश्यक उपकरणों से कम उपकरण रखना ऊनोदरी तप है। ३. भिक्षाचर्या - विविध अभिग्रह लेकर भिक्षा का संकोच करते हुए विचरना भिक्षाचर्या तप है। ४. रसपरित्याग - विकार जनक दूध, दही, घी आदि विगयों का तथा गरिष्ठ आहार का त्याग करना रसपरित्याग है।५. कायाक्लेश - शास्त्र सम्मत रीति से शरीर को क्लेश पहुंचाना कायाक्लेश तप है। उग्र आसन, वीरासन आदि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभा सुश्रूषा का त्याग करना आदि कायाक्लेश के अनेक प्रकार हैं। ६. प्रतिसंलीनता - इन्द्रिय, कषाय और योगों का गोपन करना तथा स्त्री, पशु नपुंसक से रहित एकान्त स्थान में रहना प्रतिसंलीनता तप है।
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