Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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- श्री स्थानांग सूत्र
होने वाले, मेरु पर्वत के समान स्थिर यानी अनुकूल प्रतिकूल परीषहों से विचलित न होने वाले, सागर के समान गम्भीर, चन्द्रमा के समान शीतल, सूर्य के समान तेजस्वी, सोने के समान निर्मल, पृथ्वी के समान समभावी और भली प्रकार घृतादि की आहुति दी हुई अग्नि के समान तपतेज से जाज्वल्यमान होंगे ॥१-२ ॥
उन महापद्म तीर्थकर भगवान् को अण्डज, पोतज, औपग्रहिक और प्रग्रहिक इन चार प्रकार के प्रतिबन्धों में से कोई भी प्रतिबन्ध नहीं होगा। इसलिए वे जिस जिस दिशा में जाने की इच्छा करेंगे। उस उस दिशा में प्रतिबन्ध रहित शुद्ध भाव पूर्वक लघुभूत बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित होकर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरेंगे। इस प्रकार प्रधान ज्ञान प्रधान दर्शन ग्रांमादि में एक रात्रि ठहर कर विहार करने रूप प्रधान चारित्र से तथा आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षान्ति-क्षमा, मुक्तित्याग, गुप्ति, सत्य, संयम, तप, गुण, सुचरित्र, शौच आदि मोक्षदायक गुणों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उन महापद्म तीर्थङ्कर भगवान् को शुक्लध्यान के तीसरे पाये में चढ़ने पर अनन्त अनुत्तर यावत् निराबाध केवलज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न होंगे। तब वे भगवान् अरिहंत जिन होंगे। वे केवली सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् देव, मनुष्य और असुर रूप सम्पूर्ण लोक की समस्त पर्यायों को जानेंगे और देखेंगे। सम्पूर्ण लोक में सब जीवों की गति आगति स्थिति च्यवन-मरणं, उपपात-जन्म, तर्क-विचार, मनोगत भाव भुक्त - खाया हुआ, कृत-किया हुआ, परिसेवित-आचरण किया हुआ, प्रकट कार्य गुप्त कार्य, इन सब को तथा सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सब जीवों के उस उस काल में होने वाले मन, वचन, और काया इन तीनों योगों सम्बन्धी सब भावों को जानते हुए और देखते हुए वे अरिहन्त भगवान् विचरेंगे। तब वे भगवान् उस प्रधान केवलज्ञान केवलदर्शन से देव, मनुष्य और असुरों सहित परिषदा को जान कर श्रमण निर्ग्रन्थों पच्चीस भावना सहित पांच महाव्रत छह जीव निकाय की रक्षा रूप धर्म का उपदेश देते हुए विचरेंगे।
हे आर्यो ! जिस प्रकार मैंने श्रमण निर्ग्रन्थों को एक आरम्भस्थान, राग और द्वेष यह दो प्रकार का बन्धन, मन दण्ड, वचन दण्ड, काया दण्ड ये तीन दण्ड, क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार कषाय, शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श ये पांच कामगुण, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय, ये छह जीव निकाय, सात भय, आठ मद, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दस प्रकार का श्रमण धर्म यावत् तेतीस 'आशातना मैंने कहीं हैं । उसी तरह महापद्म तीर्थकर भगवान् भी एक आरम्भ स्थान राग, द्वेष ये दो बन्धन, मन, वचन, काया ये तीन दण्ड, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार लषाय, शब्द रूप रस गन्ध, स्पर्श ये पांच कामगुण, पृथ्वीकाया यावत् त्रसकाया ये छह जीव निकाय, सात भय, आठ मद, नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियाँ, दस प्रकार का श्रमण धर्म यावत् तेतीस आशातना की प्ररूपणा करेंगे ।
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