Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 334
________________ स्थान १० सीखने में प्रमाद करना । दर्शनोपघात - समकित में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा करना । चारित्रोपघात - पांच समिति, तीन गुप्ति में किसी प्रकार का दोष लगाना । अप्रीतिकोपघात - गुरु आदि में पूज्य भाव न रखना तथा उनकी विनय भक्ति न करना । संरक्षणोपघात परिग्रह से निवृत्त साधु को वस्त्र, पात्र तथा शरीरादि में ममत्व रखना संरक्षणोपघात कहलाता है । दस प्रकार की विशुद्धि कही गई है यथा उद्गम विशुद्धि, उत्पादना विशुद्धि यावत् संरक्षण विशुद्धि । विवेचन - जो बात जैसी हो उसे वैसा न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के दस भेद भावार्थ में बताये गये हैं।. भवनवासी देव दस भवनवासी देवों के नाम १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार ४. विद्युत्कुमार ५. अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार ८. दिशाकुमार ९. वायुकुमार १०. स्तनितकुमार । ये देव प्रायः भवनों में रहते हैं इसलिए भवनवासी कहलाते हैं। इस प्रकार की व्युत्पत्ति असुरकुमारों की अपेक्षा समझनी चाहिए, क्योंकि विशेषतः ये ही भवनों में रहते हैं । नागकुमार आदि देव तो आवासों में रहते हैं । : भवनवासी देवों के भवन और आवासों में यह फरक होता है कि भवन तो बाहर से गोल और अन्दर से चतुष्कोण होते हैं। उनके नीचे का भाग कमल की कर्णिका के आकार वाला होता है । शरीर प्रमाण बड़े, मणि तथा रत्नों के दीपकों से चारों दिशाओं कों प्रकाशित करने वाले मंडप आवास कहलाते हैं। भवनवासी देव भवनों तथा आवासों दोनों में रहते हैं। दस सुख-सुख दस प्रकार के कहे गये हैं। वे ये हैं - १. आरोग्य - शरीर का स्वस्थ रहना, उस में किसी प्रकार के रोग या पीड़ा का न होना आरोग्य कहलाता है। शरीर का नीरोग (स्वस्थ रहना सब सुखों में श्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि जब शरीर नीरोग होगा तब ही आगे के नौ सुख प्राप्त किये जा सकते हैं। शरीर के आरोग्य बिना दीर्घ आयु, विपुल धन सम्पत्ति, तथा विपुलं काम भोग आदि सुख रूप प्रतीत नहीं होते । सुख के साधन होने पर भी ये रोगी को दुःख रूप प्रतीत होते हैं। शरीर के आरोग्य बिना धर्म ध्यान होना तथा संयम सुख और मोक्ष सुख का प्राप्त होना तो असम्भव ही है। इसलिए शास्त्रकारों ने दस सुखों में शरीर की नीरोगता रूप को प्रथम स्थान दिया है। व्यवहार में भी ऐसा कहा जाता है - सुख - Jain Education International - - ३१७ 00000 'पहला सुख नीरोगी काया' अतः सब सुखों में 'आरोग्य' सुख प्रधान है। २. दीर्घ आयु - दीर्घ आयु के साथ यहाँ पर 'शुभ' यह विशेषण और समझना चाहिए। शुभ दीर्घ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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