Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 337
________________ . श्री स्थानांग सूत्र ३२० 000000000000000000000000000000000000000000000000000 वस्त्र के फट जाने पर जो कारी लगाई जाती है वह थेगलिका कहलाती है। एक ही फटी हुई जगह पर क्रमशः तीन थेगलिका के ऊपर चौथी थेगलिका लगाना वस्त्र परिकर्म कहलाता है। पात्र परिकर्मोपघात - ऐसा पात्र जो टेढा मेढा हो और अच्छी तरह साफ न किया जा सकता हो. वह अपलक्षण पात्र कहा जाता है। ऐसे अपलक्षण पात्र तथा जिस पात्र में एक, दो, तीन या अधिक बन्ध (थेगलिका) लगे हुए हों, ऐसे पात्र में अर्ध मास (पन्द्रह दिन) से अधिक दिनों तक भोजन करना पात्र परिकर्मोपघात कहलाता है। वसति परिकर्मोपघात - रहने के स्थान को वसति कहते हैं। साधु के लिए जिस स्थान में सफेदी कराई गई हो, अगर, चन्दन आदि का धूप देकर सुगन्धित किया गया हो, दीपक आदि से प्रकाशित किया गया हो, सिक्त (जल आदि का छिड़कना) किया गया हो, गोबर आदि से लीपा गया हो, ऐसा स्थान वसति परिकर्मोपघात कहलाता है। ५. परिहरणोपघात - परिहरण नाम है सेवन करना, अर्थात् अकल्पनीय उपकरणादि को ग्रहण करना परिहरणोपघात कहलाता है। यथा - एकलविहारी एवं स्वच्छन्दाचारी साधु से सेवित उपकरण सदोष माने जाते हैं। शास्त्रों में इस प्रकार की व्यवस्था है कि गच्छ से निकल कर के यदि कोई साधु अकेला विचरता है और अपने चारित्र में दृढ़ रहता हुआ दूध, दही आदि विगयों में आसक्त नहीं होता ऐसा साधु यदि बहुत समय के बाद भी वापिस गच्छ में आकर मिल जाता है तो उसके उपकरण दूषित नहीं माने जाते हैं, किन्तु शिथिलाचारी एकलविहारी जो विगय आदि में आसक्त है उसके वस्त्रादि दूषित माने जाते हैं। स्थान (वसति) परिहरणोपघात - एक ही स्थान पर चातुर्मास में चार महीने और शेष काल में । एक महीना ठहरने के पश्चात् वह स्थान कालातिक्रान्त कहलाता है। अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु को चातुर्मास में चार मास और शेष काल में एक महीने से अधिक एक ही स्थान पर रहना नहीं कल्पता है। इसी प्रकार जिस स्थान या शहर और ग्राम में चातुर्मास किया है, उसी जगह दो चातुर्मास दूसरी जगह करने से पहिले वापिस चातुर्मास करना नहीं कल्पता है और शेष काल में जहाँ एक महीना ठहरे हैं, उसी जगह (स्थान) पर दो महीने से पहिले आना साधु को नहीं कल्पता। यदि उपरोक्त मर्यादित समय से पहिले उसी स्थान पर फिर आ जावे तो उपस्थापना दोष होता है। इसका यह अभिप्राय है कि जिस जगह जितने समय तक साधु ठहरे हैं, उससे दुगुना काल दूसरे गांव में व्यतीत कर फिर उसी स्थान पर आ सकते हैं। इससे पहिले आने पर स्थान परिहरणोपघात दोष लगता है। आहार के विषय में चार भङ्ग (भांगे) होते हैं। यथा - (क) विधिगृहीत, विधिभुक्त (जो आहार विधिपूर्वक लाया गया हो और विधिपूर्वक ही भोगा गया हो)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386