Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
भावार्थ- संक्लेश- समाधिपूर्वक संयम का पालन करते हुए मुनियों के चित्त में जिन कारणों संक्षोभ यानी अशान्ति पैदा हो जाती है उसे संक्लेश कहते हैं । संक्लेश के दस कारण हैं यथा - १. उपधिसंक्लेश - वस्त्र पात्र आदि संयमोपकरणों के विषय में संक्लेश होना । २. उपाश्रय संक्लेश स्थान के विषय में संक्लेश होना । ३. कषाय संक्लेश- क्रोध, मान, माया, लोभ से चित्त में अशान्ति पैदा होना । ४. भक्तपान संक्लेश- आहार पानी आदि के विषय में होने वाला संक्लेश । ५-६-७. मन, वचन और काया से किसी प्रकार चित्त में अशान्ति का होना मन संक्लेश, वचन संक्लेश और काया संक्लेश कहलाता है । ८ ९ १०. ज्ञान दर्शन और चारित्र में किसी तरह की अशुद्धता का आना ज्ञान संक्लेश, दर्शन संक्लेश और चारित्र संक्लेश कहलाता है । असंक्लेश - संयम का पालन करते हुए मुनियों के चित्त में किसी प्रकार की अशान्ति एवं असमाधि का न होना असंक्लेश कहलाता है । यह दस प्रकार का है यथा - उपधि असंक्लेश, उपाश्रय असंक्लेश, कषाय असंक्लेश, भक्तपान असंक्लेश, मन असंक्लेश, वचन असंक्लेश, काया असंक्लेश, ज्ञान असंक्लेश, दर्शन असंक्लेश, चारित्र असंक्लेश। दस प्रकार का बल कहा गया है यथा श्रोत्रेन्द्रिय बल, चक्षुरिन्द्रिय बल, घ्राणेन्द्रिय बल, रसनेन्द्रिय बल, स्पर्शनेन्द्रिय बल, ज्ञान बल ज्ञान, अतीत, अनागत और वर्तमान काल के पदार्थों को जानता है। ज्ञान से ही चारित्र की आराधना भली प्रकार हो सकती है इसलिए ज्ञान को बल कहा गया. है । दर्शन बल अतीन्द्रिय एवं युक्ति से अगम्य पदार्थों को विषय करने के कारण दर्शन बल कहा गया है । चारित्र बल - चारित्र के द्वारा आत्मा सब संगों का त्याग कर अनन्त, अव्याबाध, एकान्तिक और आत्यन्तिक आत्मीय आनन्द का अनुभव करता है अतः चारित्र को भी बल कहा गया है । तप बल - तप के द्वारा आत्मा अनेक भवों में उपार्जित कर्मों को क्षय कर डालता है अतः तप भी बल माना गया है । वीर्य बल - जिससे गमनागमनादि विचित्र क्रियाएं की जाती है उसे वीर्य बल कहते हैं ।
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विवेचन - पाँच इन्द्रियों के पाँच बल कहे गये हैं। यथा १. स्पर्शनेन्द्रिय बल २. रसनेन्द्रिय बल ३. घ्राणेन्द्रिय बल ४. चक्षुरिन्द्रिय बल ५. श्रोत्रेन्द्रिय बल। इन पाँच इन्द्रियों को बल इसलिए माना गया है क्योंकि ये अपने अपने अर्थ (विषय) को ग्रहण करने में समर्थ हैं।
६. ज्ञान बल- ज्ञान अतीत, अनागत और वर्तमान काल के पदार्थ को जानता है। अथवा ज्ञान से ही चारित्र की आराधना भली प्रकार से हो सकती है, इसलिए ज्ञान को बल कहा गया है।
७. दर्शन बल - अतीन्द्रिय एवं युक्ति से अगम्य पदार्थों को विषय करने के कारण दर्शन बल कहा गया है।
८. चारित्र बल - चारित्र के द्वारा आत्मा सम्पूर्ण संगों का त्याग कर अनन्त, अव्याबाध, ऐकान्तिक और आत्यन्तिक आत्मीय आनन्द का अनुभव करता है। अर्थात् मोक्ष के सुखों को प्राप्त करता है। अतः चारित्र को भी बल कहा गया है।
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