Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कहीं कहीं इनके क्रम में अंतर मिलता है।
अपने से बड़े या असमर्थ की सेवा सुश्रूषा करने को वेयावच्च (वैयावृत्य) कहते हैं। इसके दस भेद हैं। भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ७ में भी इनका वर्णन आया है।
जीव परिणाम दस - एक रूप को छोड़ कर दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाना परिणाम कहलाता है । अथवा विद्यमान पर्याय को छोड़ कर नवीन पर्याय को धारण कर लेना परिणाम कहलाता है। जीव के दस परिणाम बतलाए गए हैं
श्री स्थानांग सूत्र
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१. गति परिणाम - नरक गति, तिथंच गति, मनुष्य गति और देव गति में से जीव को किसी भी गति की प्राप्ति होना गति परिणाम है। गति नामकर्म के उदय से जीव जब जिस गति में होता है तब वह उसी नाम से कहा जाता है। जैसे नरक गति का जीव नारक, देव गति का जीव देव आदि ।
किसी भी गति में जाने पर जीव के इन्द्रियाँ अवश्य होती हैं। इसलिए गति परिणाम के आगे इन्द्रिय परिणाम दिया गया है।
२. इन्द्रिय परिणाम किसी भी गति को प्राप्त हुए जीव को श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय की प्राप्ति होना इन्द्रिय परिणाम कहलाता है।
इन्द्रिय की प्राप्ति होने पर राग द्वेष रूप कषाय की परिणति होती है। अतः इन्द्रिय परिणाम के आगे कषाय परिणाम कहा है।
३. कषाय परिणाम क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषायों का होना कषाय परिणाम कहलाता है। कषाय परिणाम के होने पर लेश्या अवश्य होती है किन्तु लेश्या के होने पर कषाय अवश्यम्भावी नहीं है। क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती जीव (सयोगी केवलो) के शुक्ल लेश्या नौ वर्ष कम करोड़ पूर्व तक रह सकती है। इसका यह तात्पर्य है कि कषाय के सद्भाव में लेश्या की नियमा है और लेश्या के सद्भाव में कषाय की भजना है। आगे लेश्या परिणाम कहा जाता है।
४. लेश्या परिणाम - लेश्याएं छह हैं। कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या । इन लेश्याओं में से किसी भी लेश्या की प्राप्ति होना लेश्या परिणाम कहलाता है। योग के होने पर ही लेश्या होती है। अतः आगे योग परिणाम कहा जाता है।
५. योग परिणाम - मन, वचन, काया रूप योगों की प्राप्ति होना योग परिणाम कहलाता है। संसारी प्राणियों के योग होने पर ही उपयोग होता है । अतः योग परिणाम के पश्चात् उपयोग परिणाम कहा गया है।
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६. उपयोग परिणाम
साकार और अनाकार (निराकार) के भेद से उपयोग के दो भेद हैं। दर्शनोपयोग निराकार (निर्विकल्पक) कहलाता है और ज्ञानोपयोग साकार (सविकल्पक) होता है। इनके रूप में जीव की परिणति होना उपयोग परिणाम है।
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