Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
श्री स्थानांग सूत्र
00000000००००
प्रतिक्रमण से ही शुद्ध हो जाय गुरु के समीप कह कर आलोचना करने की भी आवश्यकता न पड़े उसे प्रतिक्रमणा कहते हैं ।
३१४
३. तदुभयार्ह - आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य। जो प्रायश्चित्त दोनों से शुद्ध हो। इसे मिश्र प्रायश्चित्त भी कहते हैं ।
४. विवेकार्ह - अशुद्ध भक्तादि को त्यागने योग्य । जो प्रायश्चित्त आधाकर्म आदि आहार का विवेक अर्थात् त्याग करने से शुद्ध हो जाय उसे विवेकार्ह कहते हैं ।
५. व्युत्सर्गार्ह - कायोत्सर्ग के योग्य। शरीर के व्यापार को रोक कर ध्येय वस्तु में उपयोग लगाने से जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि होती है उसे व्युत्सर्गार्ह कहते हैं ।
६. तपाई - जिस प्रायश्चित्त की शुद्धि तप से हो ।
७. छेदाई - दीक्षा पर्याय छेद के योग्य । जो प्रायश्चित्त दीक्षा पर्याय का छेद करने पर ही शुद्ध हो । ८. मूलाई - मूल अर्थात् दुबारा संयम लेने से शुद्ध होने योग्य । ऐसा प्रायश्चित्त जिसके करने पर साधु को एक बार लिया हुआ संयम छोड़ कर दुबारा दीक्षा लेनी पड़े।
नोट - छेदार्ह में चार महीने, छह महीने या कुछ समय की दीक्षा कम करदी जाती है। ऐसा होने पर दोषी साधु उन सब साधुओं को वन्दना करता है, जिनसे पहले दीक्षित होने पर भी पर्याय कम कर देने से वह छोटा हो गया है। मूलाई में उसका संयम बिल्कुल नहीं गिना जाता। दोषी को दुबारा दीक्षा लेनी पड़ती है और अपने से पहले दीक्षित सभी साधुओं को वन्दना करनी पड़ती है।
९. अनवस्थाप्यार्ह - तप के बाद दुबारा दीक्षा देने के योग्य। जब तक अमुक प्रकार का विशेष तप न करे, उसे संयम या दीक्षा नहीं दी जा सकती। तप के बाद दुबारा दीक्षा लेने पर ही जिस दोष की शुद्धि हो ।
१०. पारांचिकाई - गच्छ से बाहर करने योग्य । जिस प्रायश्चित्त में साधु को संघ से निकाल दिया जाय ।
साध्वी या रानी आदि का शील भंग करने पर यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। यह महापराक्रम वाले आचार्य को ही दिया जाता है। इसकी शुद्धि के लिए छह महीने से लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी की तरह कठोर तपस्या करनी पड़ती है। उपाध्याय के लिए नववें प्रायश्चित्त तक का विधान है। सामान्य साधु के लिये मूल प्रायश्चित्त अर्थात् आठवें तक का विधान है।
जहाँ तक चौदह पूर्वधारी और पहले संहनन वाले होते हैं, वहीं तक दसों प्रायश्चित्त रहते हैं । उनका विच्छेद होने के बाद मूलाई तक आठ ही प्रायश्चित्त होते हैं।
मिथ्यात्व के भेद
दसविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते तंजहा अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा,
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org