Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 312
________________ स्थान १० २९५ अजीव पदार्थों का आपस में मिलना। गति परिणाम - अजीव पुद्गलों की गति होना । संस्थान परिणाम-अजीव पुद्गलों का छह संस्थान रूप में परिणत होना । भेद परिणाम - पदार्थों में भेद होना । वर्ण परिणाम - पांच प्रकार के वर्ण में परिणत होना । रस परिणाम - पांच रसों में से किसी रस में रणत होना । गन्ध परिणाम - सगन्ध या दुर्गन्ध रूप में पुदगलों का परिणत होना । स्पर्श परिणाम - आठ स्पों में से किसी स्पर्श में परिणत होना । अगुरुलघु परिणाम - जो न तो इतना भारी हो कि नीचे चला जावे और न इतना हल्का हो कि जो ऊपर चला जावे ऐसा अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु अगुरुलघु परिणाम कहलाता है । शब्द परिणाम - शब्द के रूप में पुद्गलों का परिणत होना । .विवेचन - अहंकार के दस कारण - दस कारणों से अहंकार की उत्पत्ति होती है। वे ये हैं - १. जातिमद २. कलमद ३. बलमद ४. श्रुतमद ५. ऐश्वर्यमद ६. रूप मद ७. तप मद ८. लब्धि मद ९. नागसुवर्णमद १०. अवधि ज्ञान दर्शन मद। . मेरी जाति सब जातियों से उत्तम है। मैं श्रेष्ठ जाति वाला हूँ। जाति में मेरी बराबरी करने वाला सरा व्यक्ति नहीं है। इस प्रकार जाति का मद करना जातिमद कहलाता है। इसी तरह कुल, बल आदि मदों के लिए भी समझ लेना चाहिए। . ..९. नागसुवर्ण मद - मेरे पास नाग कुमार, सुवर्णकुमार आदि जाति के देव आते हैं। मैं कितना . तेजस्वी हूँ कि देवता भी मेरी सेवा करते हैं। इस प्रकार मद करना। १०. अवधिज्ञान दर्शन मद - मनुष्यों को सामान्यतः जो अवधि ज्ञान और अवधि दर्शन उत्पन्न होता है उससे मुझे अत्यधिक विशेष ज्ञान उत्पन्न हुआ है। मेरे से अधिक अवधिज्ञान किसी भी मनुष्यादि को हो नहीं सकता। इस प्रकार से अवधिज्ञान और अवधि दर्शन का मद करना। इस भव में जिस बात का मद किया जायगा, आगामी भव में वह प्राणी उस बात में हीनता को प्राप्त करेगा। अत; आत्मार्थी पुरुषों को किसी प्रकार का मद नहीं करना चाहिए। समाधान रूप समाधि अर्थात् समता, सामान्य से रागादि का अभाव, वह उपाधि के भेद से दस प्रकार की कही है। . गृहस्थावास छोड़ कर साधु बनने को प्रव्रज्या कहते हैं। सूत्रकार ने इसके छन्द आदि दस कारण बताये हैं जिनका अर्थ भावार्थ में कर दिया गया है। श्रमण धर्म - मोक्ष की साधन रूप क्रियाओं के पालन करने को चारित्र धर्म कहते हैं। इसी का नाम श्रमण धर्म है। यद्यपि इसका नाम श्रमण अर्थात् साधु का धर्म है फिर भी सभी के लिये जानने योग्य तथा आचरणीय है। धर्म के ये ही दस लक्षण माने जाते हैं। अजैन सम्प्रदाय भी धर्म के इन लक्षणों को मानते हैं। वे इस प्रकार है - खंती महव अज्जव, मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे। सच्चं सोअं अकिंचणं च, बंभं च जइ धम्मो॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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