Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
. ७. लोक का अलोक में प्रवेश या अलोक का लोक में प्रवेश न कभी हुआ है, न कभी होता है और न कभी होगा। यह सातवीं लोक स्थिति है।
८. जितने क्षेत्र में लोक शब्द का व्यपदेश (कथन) है वहाँ वहाँ जीव हैं और जितने क्षेत्र में जीव हैं, उतना क्षेत्र लोक है। यह आठवीं लोक स्थिति है।
९. जहाँ जहाँ जीव और पुद्गलों की गति होती है वह लोक है और जहाँ लोक है वहीं वहीं पर जीव और पुद्गलों की गति होती है। यह नववीं लोक स्थिति है।
१०. लोकान्त में सब पुद्गल इस प्रकार और इतने रूक्ष हो जाते हैं कि वे परस्पर पृषके हो जाते हैं अर्थात् बिखर जाते हैं। पुद्गलों के रूक्ष हो जाने के कारण जीव और पुद्गल लोक से बाहर जाने में असमर्थ हो जाते हैं। अथवा लोक का ऐसा ही स्वभाव है कि लोकान्त में जाकर पुद्गल अत्यन्त रूक्ष हो जाते हैं जिससे कर्म सहित जीव और पुद्गल फिर आगे गति करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह दसवीं लोक स्थिति है।
शब्द और इन्द्रिय विषय दसविहे सहे पण्णते तंजहा___णीहारी पिंडिमे लुक्खे, भिण्णे जजरिए इय ।
दीहे रहस्से, पहत्ते य, काकणी खिंखिणीस्सरे ॥१॥ दस इंदियत्था अतीता पण्णत्ता तंजहा - देसेण वि एगे सहाई सुणिंसु सव्वेण वि. एगे सदाइं सुणिंस, देसेण वि एगे स्वाइं पासिंस सव्वेण वि.एगे रूवाई पासिंस एवं गंधाइं रसाइं फासाइं जाव सव्वेण वि एगे फासाइं पडिसंवेदिसु । दस इंदियत्था पडुप्पण्णा पण्णत्ता तंजहा - देसेण वि एगे सहाई सुर्णेति, सब्वेण वि एगे सदाई सुर्णेति, एवं जाव फासाई । दस इंदियत्था अणागया पण्णत्ता तंजहा- देसेण वि एगे सहाई सुणिस्संति, सव्वेण वि एगे सहाई सुणिस्संति एवं जाव सव्वेण वि एगे फासाई पडिसंवेदिस्संति॥११५॥
कठिन शब्दार्थ - णीहारी - निर्हारी, पिंडिमे - पिण्डिम, जग्जरिए - बर्जरित, खिखिणी - किंकिणी, इंदियत्या - इन्द्रियों के अर्थ (विषय) देसेण - एक देश से, सव्वेण - सम्पूर्ण रूप से, पडप्पण्णा- प्रत्युत्पन्न (वर्तमान)। - भावार्थ - शब्द दस प्रकार का कहा गया है । यथा - १. निर्हारी - आवाज युक्त शब्द, जैसे घण्टा झालर आदि का शब्द २. पिण्डिम - घोष यानी आवाज से रहित शब्द, जैसे डमरु आदि का शब्द ३. रूक्ष - रूखा शब्द, जैसे कौए का शब्द ४. भिन्न शब्द - जैसे कोढ आदि रोग से पीड़ित पुरुष का
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