Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ७
१६३
प्रकार से रक्षा न करवा सकते हों तो साधु आपस में या आचार्य के साथ कलह करने लगते हैं और गच्छ की व्यवस्था टूट जाती है । __सात पिण्डैषणाए कही गई हैं। सात पानैषणाएं कही गई है। सात अवग्रह प्रतिमाएं यानी उपाश्रय ग्रहण करने के अभिग्रह विशेष कहे गये हैं। सात सप्तैकक यानी आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के अध्ययन कहे गये हैं। सात महाअध्ययन यानी सूत्रकृताङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययन कहे गये हैं। सप्तसप्तमिका भिक्षुपडिमा ४९ उन पचास अहोरात्रि में पूर्ण होती है और १९६ दत्ति (दात) आहार की तथा १९६ दत्ति (दात) पानी की होती है। इस प्रकार इसका सूत्रानुसार आराधन किया जाता है।
विवेचन - आचार्य तथा उपाध्याय के सात संग्रह स्थान-आचार्य और उपाध्याय सात बातों का ध्यान रखने से ज्ञान अथवा शिष्यों का संग्रह कर सकते हैं, अर्थात् इन सात बातों का ध्यान रखने से वे संघ में व्यवस्था कायम रख सकते हैं, दूसरे साधुओं को अपने अनुकूल तथा नियमानुसार चला सकते हैं।
१. आचार्य तथा उपाध्याय को आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करना चाहिए। किसी काम के लिए विधान करने को आज्ञा कहते हैं, तथा किसी बात से रोकने को अर्थात् नियन्त्रण को धारणा कहते हैं। इस तरह के नियोग (आज्ञा) या नियन्त्रण के अनुचित होने पर साधु आपस में या आचार्य के साथ कलह करने लगते हैं और व्यवस्था टूट जाती है। अथवा देशान्तर में रहा हुआ गीतार्थ साधु अपने अतिचार को गीतार्थ आचार्य से निवेदन करने के लिए अगीतार्थ साधु के सामने जो कुछ गूढार्थ पदों में कहता है उसे आज्ञा कहते हैं। अपराध की बार बार आलोचना के बाद जो प्रायश्चित्त विशेष का निश्चय किया जाता है उसे धारणा कहते हैं। इन दोनों का प्रयोग यथारीति न होने से कलह होने का डर रहता है, इसलिए शिष्यों के संग्रहार्थ इन का सम्यक् प्रयोग होना चाहिए।
२. आचार्य और उपाध्याय को रत्नाधिक की वन्दना वगैरह का सम्यक् प्रयोग कराना चाहिए। दीक्षा के बाद ज्ञान, दर्शन और चारित्र में बड़ा साधु छोटे साधु द्वारा वन्दनीय समझा जाता है। अगर कोई छोटा साधु रत्नाधिक को. वन्दना न करे तो आचार्य और उपाध्याय का कर्तव्य है कि वे उसे वन्दना के लिए प्रवृत्त करें। इस वन्दना व्यवहार का लोप होने से व्यवस्था टूटने की सम्भावना रहती है। इसलिए वन्दना व्यवहार का सम्यक् प्रकार पालन करवाना चाहिए। यह दूसरा संग्रहस्थान है।
३. शिष्यों में जिस समय जिस सूत्र के पढ़ने की योग्यता हो अथवा जितनी दीक्षा के बाद जो सूत्र पढ़ाना चाहिए उस का आचार्य उपाध्याय हमेशा ध्यान रक्खे और समय आने पर उचित सूत्र पढ़ावे। यह तीसरा संग्रहस्थान है। ठाणांग सूत्र की टीका में सूत्र पढ़ाने के लिए दीक्षापर्याय की निम्नलिखित मर्यादा की गई है
- तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारांग पढ़ाना चाहिए। चार वर्ष वाले को सूयगडांग। पांच वर्ष वाले को दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार । आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को ठाणांग
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