Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ९
२५३
मस्सा आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं । अथवा अतिअशनता (अहित अशनता) - ज्यादा खाने से अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं । २. अहितासनता - अहित यानी जो आसन प्रतिकूल हो उस आसन से बैठने पर शरीर में कई रोग उत्पन्न हो जाता है अथवा अहिताशनता - अहित यानी कुपथ्य का सेवन करने से शरीर में रोग उत्पन्न हो जाता है। ३. अतिनिद्रा - अधिक नींद लेने से, ४. अति जागरिता - अधिक जागने से, ५. उच्चार निरोध यानी टट्टी की बाधा को रोकने से, ६. प्रस्रवणनिरोध - पेशाब की बाधा को रोकने से ७. अद्धा गमन- मार्ग में अधिक चलने से ८. भोजन प्रतिकूलता - जो भोजन अपनी प्रकृति के अनुकूल न हो ऐसा भोजन करने से, ९. इन्द्रियार्थ विकोपनता - इन्द्रियों के शब्दादि विषयों का विपाक अर्थात् कामविकार । कामभोगों का अधिक सेवन से तथा उनमें अधिक आसक्ति रखने से उन्माद आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।
विवेचन - तत्त्व - वस्तु के यथार्थ स्वरूप को तत्त्व कहते हैं। इन्हें सद्भाव पदार्थ भी कहा जाता है। तत्त्व नौ हैं -
जीवाऽजीवा पुण्णं पापाऽऽसव संवरो य निजरणा। बंधो मुक्खो य तहा, नव तत्ता हुंति नायव्या॥
(नवतत्त्व, गाथा १) १. जीव - जिसे सुख दुःख का ज्ञान होता है तथा जिसका उपयोग लक्षण है, उसे जीव कहते हैं। . २. अजीव - जड़ पदार्थों को या सुख दुःख के ज्ञान तथा उपयोग से रहित पदार्थों को अजीव कहते हैं।
३. पुण्य-कर्मों की शुभ प्रकृतियों पुण्य कहलाती है। ४. पाप- कर्मों की अशुभ प्रकृतियाँ पाप कहलाती है। ... .५. आस्रव.- शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का कारण आस्रव कहलाता है। ६.संवर- समिति गुप्ति आदि से कर्मों के आगमन को रोकना संवर है। ७. निर्जरा - फलभोग या तपस्या के द्वारा कर्मों के अंश खपाना निर्जरा है। ८. बन्ध - आस्रव के द्वारा आए हुए कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना बन्ध है। ९. मोक्ष - सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा का अपने स्वरूप में लीन हो जाना मोक्ष है।
शरीर में किसी तरह के विकार होने को रोग कहते हैं। रोगोत्पत्ति के नौ कारण बताये गये हैं। ... मूल में 'अच्चासणाए' पाठ है जिसके दो रूप होते हैं - १. अत्यासन यानी अति आसनता - अधिक बैठे रहने से और २. अत्याशन - अति अशन अर्थात् ज्यादा खाने से रोग उत्पन्न हो जाते हैं। वैद्यक शास्त्र में भी कहा है -
अत्यंबुपानाद्विषमासना च्च, संधारणा मूत्र पुरीषयोश्च। दिवाशय्या जागरणाच्च रात्री, षड्भिः प्रकारः प्रभवंति रोगमः॥
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