Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 को लगाना। सावदय - दोष वाले कार्य में मन को लगाना। सक्रिय - कायिकी आदि क्रियाओं में आसक्ति सहित मन का व्यापार । सोपक्लेश - शोकादि उपक्लेश सहित मन का व्यापार । आस्रवकर - आस्रव वाले कार्यों में मन की प्रवृत्ति । क्षपिकर - अपने तथा दूसरों को कष्ट पहुंचाने वाले कार्य में मन की प्रवृत्ति। भूताभिशङ्कन - जीवों को भय उत्पन्न करने वाले कार्य में मन की प्रवृत्ति । प्रशस्त वचन विनय सात प्रकार का कहा गया है यथा - अपाप - पापरहित वचन बोलना। असावदय - दोष रहित वचन बोलना। यावत् अभूताभिशङ्कन - प्राणियों को कष्ट न पहुंचाने वाला वचन बोलना। अप्रशस्त वचनविनय सात प्रकार का कहा गया है यथा - पापक - पापयुक्त वचन बोलना यावत् भूताभिशङ्कन - प्राणियों को कष्ट पहुंचाने वाला वचन बोलना। प्रशस्त काय विनय सात प्रकार का कहा गया है यथा - आयुक्त गमन - सावधानी पूर्वक जाना, आयुक्त स्थान - सावधानता पूर्वक ठहरना। आयुक्त निषीदन - सावधानी पूर्वक बैठना । आयुक्त शयन - सावधानता पूर्वक सोना । आयुक्त उल्लंघन - सावधानता पूर्वक उल्लंघन करना। आयुक्त प्रलंघन - सावधानता पूर्वक बारबार लांघना। सर्वेन्द्रिय योग योजनता - सभी इन्द्रिय और योगों की प्रवृत्ति सावधानता पूर्वक करना। अप्रशस्त काय विनय सात प्रकार का कहा गया है यथा- अनायक्त गमन - असावधानी से जाना। यावत अनायक्त सर्वेन्द्रिय योग योजनता - सभी इन्द्रिय और योगों की प्रवृत्ति असावधानी पूर्वक करना। लोकोपचार विनय - दूसरों को सुख पहुंचाने वाले बाह्य आचार को अथवा लौकिक व्यवहार को लोकोपचार विनय कहते हैं। वह सात प्रकार का . कहा गया है यथा - अभ्यास वर्तित्व यानी गुरु आदि अपने से बड़ों के पास रहना और अभ्यास में प्रेम रखना। परच्छन्दानुवर्तित्व - गुरु एवं अपने से बड़ों की इच्छानुसार चलना। कार्यहेतु - गुरु एवं अपने से बड़ों के द्वारा किये हुए ज्ञान दानादि कार्य के लिए उन्हें विशेष मानना। कृत प्रतिकृतिता - दूसरे के द्वारा अपने ऊपर किये हुए उपकार का बदला देना अथवा आहारादि के द्वारा गुरु की शुश्रूषा करने पर 'टे प्रसन्न होंगे और उसके बदले में वे मुझे ज्ञान सिखायेंगे' ऐसा समझ कर उनकी विनयभक्ति करना । आर्तगवेषणता - दुःखी प्राणियों की रक्षा के लिये उनकी गवेषणा करना। देशकालज्ञता - अवसर देख कर कार्य करना और सर्वार्थ अप्रतिलोमता - गुरु के सब कार्यों में अनुकूल रहना । .
- विवेचन - वचन अर्थात् भाषण सात तरह का कहा है। विनय का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है - "विनीयतेष्टप्रकार कर्मानेनेति विनयः।" अर्थात् जिस से आठ प्रकार का कर्ममल दूर हो वह विनय है। अथवा
दूसरे को उत्कृष्ट समझ कर उस के प्रति श्रद्धा भक्ति दिखाने और उस की प्रशंसा करने को विनय कहते हैं। विनय के सात भेद हैं -
१.ज्ञान विनय - ज्ञान तथा ज्ञानी पर श्रद्धा रखना, उनके प्रति भक्ति तथा बहुमान दिखाना, उनके द्वारा प्रतिपादित तत्वों पर अच्छी तरह विचार तथा मनन करना और विधिपूर्वक ज्ञान का ग्रहण तथा, अभ्यास करना ज्ञान विनय है। मतिज्ञान आदि के भेद से इसके पाँच भेद हैं।
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