Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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'श्री स्थानांग सूत्र
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इसी तरह नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक २४ ही दण्डक के जीवों ने आठ कर्मों का सञ्चय किया था, सञ्चय करते हैं
और सञ्चय करेंगे । जीवों ने आठ कर्मों का उपचय किया था, उपचय करते हैं और उपचय करेंगे । इसी तरह चय, उपचय, बन्ध उदीरणा, वेदना और निर्जरा इन छह बातों का कथन २४ ही दण्डकों में कर देना चाहिए।
विवेचन- जिनकल्प प्रतिमा या मासिकी प्रतिमा आदि अंगीकार करके साधु के अकेले विचरने रूप अभिग्रह को एकल विहार प्रतिमा कहते हैं। समर्थ और श्रद्धा तथा चारित्र आदि में दृढ़ साधु ही इसे अंगीकार कर सकता है। उसमें आठ बातें होनी चाहिये जिनका स्पष्टीकरण भावार्थ में दे दिया गया है।
उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। त्रस योनि के अनेक भेद होने पर भी सूत्रकार ने सभी त्रस जीवों के आठ उत्पत्ति स्थान कहे हैं - १. अंडज २. पोतज ३. जरायुज ४. रसज ५. संस्वेदज ६. सम्मूर्छिम ७. उद्भिज्ज और ८. औपपातिक। आगे के सूत्र में इन जीवों की गति आगति बतायी गयी है। :
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से आत्म प्रदेशों में हलचल होती है तब जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानंत कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं। जीव और कर्म का यह मैल ठीक वैसा ही होता है जैसा दूध और पानी का या अग्नि और लोह पिंड का। इस प्रकार आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त कार्मण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। कर्म के आठ भेद हैं। १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र और ८. अन्तराय।
१. ज्ञानावरणीय - वस्तु के विशेष धर्म को जानना 'ज्ञान' कहलाता है और जिसके द्वारा ज्ञान ढका जाय उसे 'ज्ञानावरणीय कर्म' कहते हैं। जैसे बादलों से सूर्य ढक जाता है।
२. दर्शनावरणीय - वस्तु के सामान्य धर्म को जानना 'दर्शन' कहलाता है, उस दर्शन को आच्छादित करने वाले कर्म को 'दर्शनावरणीय कर्म' कहते हैं। जैसे द्वारपाल के रोक देने पर राजा के दर्शन नहीं हो पाते हैं। ___३. वेदनीय - जिस कर्म के द्वारा साता (सुख) और असाता (दुःख) का वेदन (अनुभव) हो, उसे 'वेदनीय कर्म' कहते हैं। जैसे - शहद लिपटी तलवार के चाटने से सुख और जीभ कटने से दुःख
होता है।
४. मोहनीय - जिससे आत्मा मोहित (सत् और असत् के ज्ञान से शून्य) हो जाय, उसे 'मोहनीय कर्म' कहते हैं। जैसे मदिरा पीने से मनुष्य बे-भान हो जाता है।
५. आयु- जिस कर्म के उदय से जीव चार गतियों में रुका रहे, उसे 'आयु कर्म' कहते हैं। जैसे बेड़ी में बंधने से अपराधी रुक जाता है, पराधीन हो जाता है।
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