Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
श्री स्थानांग सूत्र
शब्दार्थ से सम्बन्ध न रखने वाली अनादिकालीन से प्रचलित संज्ञा को नाम कहते हैं। शब्दार्थ का ध्यान रख कर किसी वस्तु को जो नाम दिया जाता है उसे गोत्र कहते हैं। घम्मा आदि सात पृथ्वियों के नाम हैं और रत्नप्रभा आदि गोत्र ।
'पिंडलग पिहुल संठाण संठियाओ' के स्थान पर कहीं कहीं 'छत्ताइछत्तसंठाणसंठियाओ' यह पाठ भी मिलता है । इसका अर्थ यह है कि जैसे एक छत्र पर दूसरा छत्र रखा हुआ हो, इस प्रकार के आकार वाली हैं। क्योंकि सातवीं नरक सात राजु की विस्तृत है और छठी नरक साढ़े छह राजु विस्तृत है । इस प्रकार पांचवीं नरक छह राजु चौथी नरक पांच राजु, तीसरी नरक चार राजु दूसरी नरक ढाई राजु और पहली नरक एक राजु विस्तृत है । मोटाई में सभी नरकें एक एक राजु हैं ।
दूसरा पाठान्तर है - "पिहुल पिहुल संठाण संठियाओ ।" इसका अर्थ यह है कि - ये सातों नरकं क्रम से अधिक अधिक विस्तार वाली हैं अर्थात् पहली नरक से दूसरी और दूसरी से तीसरी इस प्रकार आगे आगे की नरकें अधिक विस्तार वाली हैं ।
१६८
00
अधोलोक में सात पृथ्वियाँ कहने से यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि क्या ऊर्ध्वलोक में भी पृथ्वी है ? उत्तर हाँ ! ऊर्ध्व लोक में ईषत्प्राग्भारा नाम की एक पृथ्वी है जिसको 'सिद्ध शिला' भी कहते हैं ।
सात नरकों का विशेष वर्णन जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति से जानना चाहिए।
बादर वायुकायिक, संस्थान
सत्तविहा बायर वाउकाइया पण्णत्ता तंजहा - पाईणवाए, पडीणवाए, दाहिणवाए, उदीणवाए, उड्डवाए, अहोवाए, विदिसवाए । सत्त संठाणा यण्णत्ता तंजहा - दीहे, रहस्से, वट्टे, तंसे, चउरंसे, पिहुले, परिमंडले ।
भय स्थान, छद्मस्थ और केवली का विषय
सत्त भट्ठाणा पण्णत्ता तंजहा - इहलोग भए, परलोगभए, आयाणभए, अकम्हाभए, वेयणभए, मरणभए, असिलोयभए । सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणिज्जा तंजा - पाणे अइवाइत्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, अदिण्णमाइत्ता भवइ, सफरिस रसरूवगंधे आसाइत्ता भवइ, पूयासक्कार मणुबूहित्ता भवइ, इमं सावज्जं ति पणवित्ता पडसेवित्ता भवइ, णो जहावाई तहाकारी यावि भवइ । सत्तहिं ठाणेहिं केवल जाणिज्जा तंजहा - णो पाणे अइवाइत्ता भवइ, जाव जहावाई तहाकारी यावि भवइ ॥ ६४ ॥
कठिन शब्दार्थ - विदिसवाए विदिशा की वायु, संठाणा - संस्थान, रहस्से - ह्रस्व, तंसे -
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org