Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
कि मुझे अतिशय-विशिष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है । मैंने उस विशिष्ट ज्ञान द्वारा देखा है कि क्रिया ही कर्म है और वही जीव का आवरण है। कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि क्रिया का आवरण जीव हीं है । जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं । विभङ्गज्ञान का यह तीसरा भेद है । ४. अब चौथे विभंगज्ञान का स्वरूप बतलाया जाता है - जब तथारूप यानी बालतपस्वी मिथ्यात्वी श्रमण माहन को विभङ्गज्ञान उत्पन्न होता है तब वह उस विभङ्ग ज्ञान के द्वारा बाहरी और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण . करके फुरित्ता फुट्टित्ता उनका स्पर्श, स्फुरण तथा स्फोटन करके पृथक् पृथक् एक या अनेक रूपों का वैक्रिय करते हुए देवों को ही देखता है तब उसके मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है । उसके द्वारा मेंने देखा है कि - जीव षुद्गल रूप ही है । कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गलरूप नहीं है वे मिथ्या कहते हैं यह विभङ्गज्ञान का चौथा भेद है । ५. अब पांचवें विभङ्ग ज्ञान का स्वरूप बतलाया जाता है - जब तथारूप यानी बालतपस्वी मिथ्यात्वी श्रमण माहन को विभङ्गज्ञान उत्पन्न होता है । तब वह उस विभङ्गज्ञान के द्वारा बाहरी और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही पृथक् पृथक् एक और अनेक रूपों का वैक्रिय करते हुए देवों को देखता है । तब उसके मन में विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन हुआ है । उसके द्वारा मैंने देखा है कि - जीव पुद्गल रूप नहीं है । कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव पुद्गल रूप नहीं है । वे मिथ्या कहते हैं । विभङ्गज्ञान का यह पांचवां भेद हैं । ६, अब छठे विभङ्गज्ञान का स्वरूप बतलाया जाता है - जब तथारूप यानी बालतपस्वी मिथ्यात्वी श्रमण माहन को विभङ्गज्ञान उत्फा होता है तब वह उस विभङ्गज्ञान के द्वारा बाहरी और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके अथवा ग्रहण किये बिना ही पृथक् पृथक् अनेक या अनेक रूपों का वैक्रिय करते हुए देवों को देखता है । तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है । उससे मैंने देखा है कि जीव रूपी है । कितनेक श्रमण माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी है । वे मिथ्या कहते हैं । यह विभङ्गज्ञान का छठा भेद है । ७. अब सातवें विभङ्गज्ञान का स्वरूप कहा जाता है - जब तथारूप यानी बालतपस्वी मिथ्यात्वी श्रमण माहन को विभङ्गज्ञान उत्पन्न होता है तब वह उस विभङ्गज्ञान के द्वारा सूक्ष्म यानी मन्दमन्द वायु से स्पृष्ट कांपते हुए, विशेष कांपते हुए, चलते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पन्दन करते हुए, दूसरे पदार्थ को स्पर्श करते हुए और दूसरे पदार्थ को प्रेरित करते हुए तथा उन उन परिणामों को प्राप्त होते हुए पुद्गलों को देखता है । तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है । उसके द्वारा मैंने देखा है कि ये सब
• वास्तव में तो शरीर सहित संसारी जीव पुद्गल और अपुद्गल दोनों रूप है । इसलिए कोई एक सर्वथा , एकान्त पक्ष मिथ्या है।
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