Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ६
१५३ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 भाव होता है और मनुष्य गति में सम्यक्त्व प्राप्ति के समय तथा उपशम श्रेणी में औपशमिक भाव होता है। चारों गतियों में गति आदि औदयिक, सम्यक्त्व आदि औपशमिक, इन्द्रियादि क्षयोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक भाव हैं। __५. चतुस्संयोगी भङ्गों में चौथा भङ्ग औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक चारों गतियों में पाया जाता है। चारों गतियों में गति आदि औदयिक, सम्यक्त्व आदि क्षायिक, इन्द्रियादि क्षायोपशमिक और जीवत्व पारिणामिक भाव हैं।
६. पंच संयोग का भङ्ग उपशम श्रेणी स्वीकार करने वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव में ही पाया जाता है, क्योंकि उसी में पांचों भाव एक साथ हो सकते हैं अन्य में नहीं। उक्त जीव में गति आदि औदयिक, चारित्र रूप औपशमिक क्षायिक सम्यक्त्व रूप क्षायिक, इन्द्रियादि क्षयोपशमिक भाव और जीवत्व पारिणामिक भाव है। ...
विवेचन - आगामी भव में उत्पन्न होने के लिये जाति, गति, आयु आदि का बांधना आयु बंध कहा जाता है। इसके छह.भेद हैं। जाति आदि नाम कर्म के विशेषण से आयु के भेद बताने का यही आशय है कि आयु कर्म प्रधान है। यही कारण है कि नरकादि आयु का उदय होने पर ही जाति आदि नाम कर्म का उदय होता है।
.. यहां भेद तो आयु के दिये हैं पर शास्त्रकार ने आयु बन्ध के छह भेद लिखे हैं। इससे शास्त्रकार यह बताना चाहते हैं कि आयु बन्ध से अभिन्न है। अथवा बन्ध प्राप्त आयु ही आयु शब्द का वाच्य है।
भाव - कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम या उपशम से होने वाले आत्मा के परिणामों को भाव कहते हैं। इसके छह भेद हैं।
- छविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते तंजा - उच्चार पडिक्कमणे, पासवण पडिक्कमणे, इत्तरिए आवकहिए, जं किंचि मिच्छा, सोमणंतिए।
कत्तिया णक्खत्ते छ तारे पण्णत्ते । असिंलेसा णक्खत्ते छ तारे पण्णत्ते । जीवाणं छट्ठाण णिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा तंजहा - पुढविकायणिव्वत्तिए जाव तसकाय णिव्वत्तिए । एवं चिण, उवचिण, बंध, उदीर, वेय, तह णिज्जरा चेव । छप्पएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। छप्पएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता । छह समय ठिझ्या पोग्गला अणंता पण्णत्ता । छगुण कालगा पोग्गला जाव छगुण लुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता॥६०॥
॥छट्ठाणं छट्ठमज्झयणं समत्तं ॥
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