Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ६
११९
बीत जाने पर अर्थात् पांचवें आरे के अन्तिम दिन में गण (समुदाय जाति) विवाहादि व्यवहार, पाखण्डधर्म, राजधर्म, अग्नि और अग्नि से होने वाली रसोई आदि क्रियाएँ, चारित्र धर्म और गच्छ व्यवहार-इन सभी का विच्छेद हो जायगा। यह आरा दुःख प्रधान है इसलिए इसका नाम दुषमा है।
६. दुषम दुषमा - अवसर्पिणी का दुषमा आरा बीत जाने पर अत्यन्त दुःखों से परिपूर्ण दुषम दुषमा नामक छठा आरा प्रारम्भ होगा। यह काल मनुष्य और पशुओं के दुःखजनित हाहाकार से व्याप्त होगा। इस आरे के प्रारम्भ में धूलिमय भयंकर आंधी चलेगी तथा संवर्तक वायु बहेगी। दिशाएं धूलि से भरी होंगी इसलिए प्रकाश शून्य होंगी। अरस, विरस, क्षार, खात, अग्नि, विद्युत् और विष प्रधान मेघ बरसेंगे। प्रलयकालीन पवन और वर्षा के प्रभाव से विविध वनस्पतियों एवं त्रस प्राणी नष्ट हो जायेंगे। पहाड़ और नगर पृथ्वी से मिल जायेंगे। पर्वतों में एक वैताढ्य पर्वत स्थिर रहेगा और नदियों में गंगा और सिंधु नदियाँ रहेगी। काल के अत्यन्त रूक्ष होने से सूर्य खूब तपेगा और चन्द्रमा अति शीत होगा। गंगा और सिंधु नदियों का पाट रथ के चीले जितना अर्थात् पहियों के बीच के अन्तर जितना चौड़ा होगा और उनमें रथ की धुरी प्रमाण गहरा पानी होगा। नदियाँ मच्छ कच्छपादि जलचर जीवों से भरी हुई होंगी। भरत क्षेत्र की भूमि अंगार, भोभर राख तथा तपे हुए तवे के सदृश होगी। ताप में वह अग्नि जैसी होगी तथा धूलि और कीचड़ से भरी होगी। इस कारण प्राणी पृथ्वी पर कष्ट पूर्वक चल फिर सकेंगे। इस आरे के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हाथ की और उत्कृष्ट आयु सोलह और बीस वर्ष की होगी। ये अधिक सन्तान वाले होंगे। इनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संहनन, संस्थान सभी अशुभ होंगे। शरीर सब तरह से बेडौल होगा। अनेक व्याधियाँ घर किये रहेंगी। राग द्वेष और कषाय की मात्रा अधिक होगी। धर्म और श्रद्धा बिलकुल नहीं रहेंगी। वैतात्य पर्वत में गंगा और सिंधु महानदियों के पूर्व पश्चिम तट पर ७२ बिल हैं वे ही इस काल के मनुष्यों के निवास स्थान होंगे। ये लोग सूर्योदय और सूर्यास्त के समय अपने अपने बिलों से निकलेंगे और गंगा सिंधु महानदी से मच्छ कच्छपादि पकड़ कर रेत में गाड़ देंगे। शाम के समय गाड़े हुए मच्छादि को सुबह निकाल कर खाएंगे और सुबह के गाड़े हुए मच्छादि को शाम को निकाल कर खायेंगे। व्रत, नियम और प्रत्याख्यान से रहित, मांस का आहार करने वाले, संक्लिष्ट परिणाम वाले ये जीव मरकर प्रायः नरक और तिर्यंच योनि में उत्पन्न होंगे। · उत्सर्पिणीके छह आरे - जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाय, आयु और अवगाहना बढ़ते जायें तथा उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम की वृद्धि होती जाय वह उत्सर्पिणी काल है। जीवों की तरह पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी इस काल में क्रमशः शुभ होते जाते हैं। अशुभतम भाव, अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए यावत् शुभतम हो जाते हैं। अवसर्पिणी काल में क्रमशः हास होते हुए हीनतम अवस्था आ जाती है और इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आ जाती है।
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