Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री स्थानांग सूत्र
संज्वलन कषाय करने वाला साधु यथासूक्ष्म कषायकुशील कहलाता है। निर्ग्रन्थ पांच प्रकार का कहा गया है यथा - प्रथम समय निर्ग्रन्थ - अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निर्ग्रन्थ काल की समय राशि में से प्रथम समय में वर्तमान साधु। अप्रथम समय निर्ग्रन्थ - प्रथम समय के सिवाय शेष समयों में वर्तमान साधु। ये दोनों भेद पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा से है। चरमसमय निर्ग्रन्थ - अन्तिम समय में वर्तमान साधु । अचरम समय निर्ग्रन्थ - अन्तिम समय के सिवाय शेष समयों में वर्तमान साधु । ये दोनों भेद पश्चानुपूर्वी की अपेक्षा से है। यथा-सूक्ष्म निर्ग्रन्थ - प्रथम समय आदि की अपेक्षा बिना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान साधु यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थ कहलाता है। स्नातक - शुक्लध्यान द्वारा सम्पूर्ण घाती कर्मों के समूह को क्षय • करके जो शुद्ध हुए हैं वे स्नातक कहलाते हैं। सयोगी और अयोगी के भेद से स्नातक दो प्रकार के होते हैं। दूसरी तरह से स्नातक पांच प्रकार का कहा गया है यथा - अच्छवि स्नातक - काययोग का निरोध करने से छवि अर्थात् शरीर रहित अथवा पीड़ा नहीं देने वाला होता है। अशबल स्नातक चारित्र को अतिचार रहित शुद्ध पालता है इसलिए वह अशबल होता है। अकांश -घाती कर्मों का क्षय कर डालने से स्नातक अकाश होता है। शुद्ध ज्ञान, दर्शन का धारक, अरिहन्त, जिन यानी रागद्वेष को जीतने वाला और केवली यानी परिपूर्ण ज्ञान, दर्शन, चारित्र का स्वामी स्नातक संशुद्ध ज्ञान दर्शन धारी अरिहन्त जिन केवली कहलाता है। अपरित्रावी - सम्पूर्ण काययोग का निरोध कर लेने पर स्नातक निष्क्रिय हो जाता है और कर्म प्रवाह रुक जाता है इसलिए वह अपरिस्रावी होता है ।
विवेचन - निर्ग्रन्थ - ग्रन्थ दो प्रकार का है। आभ्यन्तर और बाह्य । मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर ग्रन्थ है और धर्मोपकरण के सिवाय शेष धन धान्यादि बाह्य ग्रन्थ है। इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से जो मुक्त है वह निर्ग्रन्थ कहा जाता है।
निर्ग्रन्थ के पाँच भेद - १. पुलाक २. बकुश ३. कुशील ४. निर्ग्रन्थ ५. स्नातक।
१. पुलाक - दाने से रहित धान्य की भूसी को पुलाक कहते हैं। वह निःसार होती है। तप और श्रुत के प्रभाव से प्राप्त, संघादि के प्रयोजन से बल (सेना) वाहन सहित चक्रवर्ती आदि के मान को मर्दन करने वाली लब्धि के प्रयोग और ज्ञानादि के अतिचारों के सेवन द्वारा संयम को पुलाक की तरह निस्सार करने वाला साधु पुलाक कहा जाता है।
पुलाक के दो भेद होते हैं - १. लब्धि पुलाक २. प्रति सेवा पुलाक। . . २. बकुश - बकुश शब्द का अर्थ है शबल अर्थात् चित्र वर्ण। शरीर और उपकरण की शोभा करने से जिसका चारित्र शुद्धि और दोषों से मिला हुआ अतएव अनेक प्रकार का है वह बकुश कहा जाता है।
बकुश के दो भेद हैं - १. शरीर बकुश २. उपकरण बकुश। . शरीर बकुश - विभूषा के लिये हाथ, पैर, मुंह आदि धोने वाला, आँख, कान, नाक आदि
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