Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ५ उद्देशक २ 000000000000000000000000000000000000000000000000000
२. अविरति - प्राणातिपात आदि पाप से निवृत्त न होना अविरति है। "
३. प्रमाद - शुभ उपयोग के अभाव को या शुभ कार्य में यत्न, उद्यम न करने को प्रमाद कहते हैं। अर्थात् धर्मकार्य को छोड़कर अन्य पापकार्यों में प्रवृत्ति करना प्रमाद कहलाता है। ___ जिससे जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रति उद्यम करने में शिथिलता करता है वह प्रमाद है।
४. कषाय - जो शुद्ध स्वरूप वाली आत्मा को कलुषित करते हैं। अर्थात् कर्म मल से मलीन करते हैं वे कषाय हैं। __कष अर्थात् कर्म या संसार की प्राप्ति या वृद्धि जिस से हो वह कषाय है। कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला जीव का क्रोध, मान, माया, लोभ रूप परिणाम कषाय कहलाता है।
५. योग - मन, वचन, काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति को योग कहते हैं। .. श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों को वश में न रख कर शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श विषयों में इन्हें स्वतन्त्र रखने से भी पाँच आस्रव होते हैं।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह ये पांच भी आस्रव हैं।
संवर - कर्म बन्ध के कारण प्राणातिपात आदि जिससे रोके जाय वह संवर हैं। - जीव रूपी तालाब में आते हुए कर्म रूप पानी का रुक जाना संवर कहलाता है। . जैसे - जल में रही हुई नाव में निरन्तर जल प्रवेश कराने वाले छिद्रों को किसी द्रव्य से रोक देने पर, पानी आना रुक जाता है। उसी प्रकार जीव रूपी नाव में कर्म रूपी जल प्रवेश कराने वाले इन्द्रियादि रूप छिद्रों को सम्यक् प्रकार से संयम, तप आदि के द्वारा रोकने से आत्मा में कर्म का प्रवेश नहीं होता।. नाव में पानी का रुक जाना द्रव्य संवर है और आत्मा में कर्मों के आगमन को रोक देना भाव संवर है।
संवर के पाँच भेद हैं - १. सम्यक्त्व २. विरित ३. अप्रमाद ४. अकषाय ५. अयोग (शुभयोग)। १. श्रोत्रेन्द्रिय संवर २. चक्षुरिन्द्रिय संवर ३. घाणेन्द्रिय संवर ४. रसनेन्द्रिय संवर ५. स्पर्शनेन्द्रिय संवर। १. सम्यक्त्व - सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में विश्वास करना सम्यक्त्व है। यथा - अरिहंतो महदेवो जावज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं इय सम्मत्तं मए गहियं।
अर्थ - रागद्वेष के विजेता अरिहन्त (केवलज्ञानी) तो देव अर्थात् ईश्वर हैं। पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति के धारक गुरु होते हैं। वीतराग भगवान् के द्वारा कहा हुआ दयामय धर्म (तत्त्व) है। ऐसे तीन तत्त्वरूप सम्यक्त्व को मैंने ग्रहण किया है। .
२. विरति - प्राणातिपात आदि पाप-व्यापार से निवृत्त होना विरति है।
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