Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ५ उद्देशक २ . 000000000000000000000000000000000000000000000000000 असमारभमाणस्स - आरम्भ न करने वाले जीव के, अग्गबीया - अग्रबीज, मूलबीया - मूलबीज, पोरबीया - पर्वबीज, खंधबीया - स्कन्धबीज, बीयरुहा - बीज रुह।
- भावार्थ - पांच प्रकार के प्रतिसंलीन यानी इन्द्रियों को वश में करने वाले पुरुष कहे गये हैं । यथा - श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीन यानी श्रोत्रेन्द्रिय को वश करने वाला, चक्षुइन्द्रिय प्रतिसंलीन, घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीन, रसनेन्द्रिय प्रतिसंलीन और स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंलीन । पांच अप्रतिसंलीन यानी इन्द्रियों को वश में न करने वाले पुरुष कहे गये हैं । यथा - श्रोत्रेन्द्रिय अप्रतिसंलीन यानी श्रोत्रेन्द्रिय को वश में न करने वाला यावत् स्पर्शनेन्द्रिय अप्रतिसंलीन । पांच प्रकार का संवर कहा गया है । यथा - श्रोत्रेन्द्रियसंवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय संवर । पांच प्रकार का असंवर कहा गया है । यथा - श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय असंवर। ___ पांच प्रकार का संयम कहा गया है। यथा - सामायिक संयम, छेदोपस्थापनीय संयम, परिहार विशुद्धिक संयम, सूक्ष्मसम्पराय संयम और यथाख्यात चारित्र संयम। एकेन्द्रिय जीवों का आरम्भ न करने वाले यानी उन्हें न मारने वाले पुरुष के पांच प्रकार का संयम होता है। यथा - पृथ्वीकायिक संयम यावत् वनस्पतिकायिक संयम। एकेन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले पुरुष के पांच प्रकार का असंयम होता है। यथा - पृथ्वीकायिक असंयम यावत् वनस्पतिकायिक असंयम। पञ्चेन्द्रिय जीवों का आरम्भ न करने वाले पुरुष के पांच प्रकार का संयम होता है। यथा - श्रोत्रेन्द्रिय संयम यावत् स्पर्शनेन्द्रिय संयम। पञ्चेन्द्रिय जीवों का आरम्भ करने वाले पुरुष के पांच प्रकार का असंयम होता है। यथा - श्रोत्रेन्द्रिय असंयम यावत् स्पर्शनेन्द्रिय असंयम। सब प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों का आरम्भ न करने वाले पुरुष के पांच प्रकार का संयम होता है। यथा - एकेन्द्रिय संयम, बेइन्द्रिय संयम, तेइन्द्रिय संयम चौइन्द्रिय संयम, पञ्चेन्द्रिय संयम। सब प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों का आरम्भ करने वाले पुरुष के पांच प्रकार का असंयम होता है। यथा - एकेन्द्रिय असंयम यावत् पञ्चेन्द्रिय असंयम। - पांच प्रकार की तृण वनस्पति काय कही गई है। यथा - अग्र बीज, मूल बीज, पर्व बीज, स्कन्ध बीज और बीज रुह ।
विवेचन - सूत्रकार ने प्रतिसंलीन और अप्रतिसंलीन इन दो सूत्रों से धर्मी (शुभ भाव और अशुभ भाव वाले) पुरुष का कथन किया है और संवर तथा असंवर इन दो सूत्रों से धर्म-शुभाशुभ भाव का कथन किया है। . संवर - कर्म बन्ध के कारण प्राणातिपात आदि जिससे रोके जाय वह संवर है अथवा जीव रूपी तालाब में आते हुए कर्म रूपी पानी का रुक जाना संवर कहलाता है। जैसे जल में रही हुई नाव में निरन्तर जल प्रवेश कराने वाले छिद्रों को किसी द्रव्य से रोक देने पर पानी आना रुक जाता है। उसी प्रकार जीव रूपी नाव में कर्म रूपी जल प्रवेश कराने वाले इन्द्रियादि रूप छिद्रों को सम्यक् प्रकार से
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