Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ५ उद्देशक १
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पांच अनुत्तर केवलिस्स पंच अणुत्तरा पण्णत्ता तंजहा - अणुत्तरे जाणे, अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिए॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - हेऊ - हेतु, बुझइ - जानता है, अण्णाणमरणं - अज्ञान मरण, अभिगच्छइप्राप्त करता है, छउमत्थमरणं - छद्मस्थमरण, अहे - अहेतु को।
भावार्थ - पांच हेतु कहे गये हैं यथा - हेतु को नहीं जानता है । हेतु को नहीं देखता है । हेतु को नहीं श्रद्धता है । हेतु को प्राप्त नहीं करता है । हेतु को यानी हेतु रूप अज्ञान मरण मरता है । पांच हेतु कहे गये हैं यथा - हेतु से नहीं जानता है । हेतु से नहीं देखता है । हेतु से नहीं श्रद्धता है । हेतु से प्राप्त नहीं करता है । हेतु से अज्ञान मरण मरता है । ये दो सूत्र मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से कहे गये हैं । पांच हेतु कहे गये हैं यथा - हेतु को जानता है । हेतु को देखता है । हेतु को श्रद्धता है । हेतु को प्राप्त करता है । हेतु को यानी हेतु रूप छद्मस्थ मरण मरता है । पांच हेतु कहे गये हैं यथा - हेतु से जानता है यावत् हेतु से छद्मस्थ मरण मरता है । ये दो सूत्र सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से कहे गये हैं । पांच अहेतु कहे गये हैं यथा - अहेतु को नहीं जानता है यावत् अहेतु रूप छद्मस्थ मरण मरता है। पांच अहेतु कहे गये हैं यथा - अहेतु से नहीं जानता है यावत् अहेतु से छद्मस्थ मरण मरता है। पांच अहेतु कहे गये हैं यथा - अहेतु को जानता है यावत् अहेतु रूप केवलिमरण मरता है। पांच अहेतु कहे गये हैं यथा - अहेतु से नहीं जानता है यावत् अहेतु से केवलिमरण मरता है। - केवली भगवान् के पांच अनुत्तर यानी प्रधान कहे गये हैं यथा - अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन, अनुत्तर चारित्र, अनुत्तर तप, अनुत्तर वीर्य ।। - विवेचन - हेतु और अहेतु विषयक जो आठ सूत्र मूलपाठ में दिये हैं उनके विषय में टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने लिखा है कि "गमनिका मात्रमेतत्, तत्त्वं तु बहुभ्रता विदन्ति" मैंने तो इन सूत्रों का सिर्फ शब्दार्थ लिखा है । इनका भावार्थ एवं आशय क्या है ? सो तो बहुश्रुत महात्मा जानते हैं ।
केवली के पाँच अनुत्तर - केवल ज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् में पांच गुण अनुत्तर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ होते हैं - १. अनुत्तर ज्ञान २. अनुत्तर दर्शन ३. अनुत्तर चारित्र ४. अनुत्तर तप ५. अनुत्तर वीर्य।
केवली भगवान् के ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूप अनुत्तर ज्ञान, दर्शन होते हैं। मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय होने से अनुत्तर चारित्र होता है। तप चारित्रं का भेद है। इसलिये अनुत्तर चारित्र होने से उनके अनुत्तर तप.भी होता है। शैलेशी अवस्था में होने वाला शुक्लध्यान ही केवली के अनुत्तर तप है। वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय होने से केवली के अनुत्तर वीर्य (आत्म शक्ति) होता है।
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