Book Title: Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान ५ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - महानिर्जरा और महापर्यवसान के पांच बोल - १. आचार्य २. उपाध्याय (सूत्रदाता) ३. स्थविर ४. तपस्वी ५. ग्लान साधु की ग्लानि रहित बहुमान पूर्वक वैयावृत्य करता हुआ श्रमण निग्रंथ महा निर्जरा वाला होता है और पुनः जन्म न लेने के कारण महापर्यवसान अर्थात् आत्यन्तिक अन्त वाला होता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
महानिर्जरा और महापर्यवसान के पाँच बोल - १. नवदीक्षित साधु २. कुल ३. गण ४. संघ ५. साधर्मिक की ग्लानि रहित बहुमान पूर्वक वैयावृत्य करने वाला साधु महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। -- १. थोड़े समय की दीक्षा पर्याय वाले साधु को नव दीक्षित कहते हैं।
२. एक आचार्य की सन्तति को कुल कहते हैं अथवा चान्द्र आदि साधु समुदाय विशेष को कुल कहते हैं। ... ३. गण - कुल के समुदाय को गण कहते हैं अथवा सापेक्ष तीन कुलों के समुदाय को गण कहते हैं।
४. संघ - गणों के समुदाय को संघ कहते हैं। ____५. साधर्मिक - लिङ्ग और प्रवचन की अपेक्षा समान धर्म वाला साधु साधर्मिक कहा जाता है।
विसंभोगिक, पारंचित . ... पंचहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णाइक्कमइ
तंजहा - सकिरियठाणं पडिसेवित्ता भवइ, पडिसेवित्ता णो आलोएइ, आलोइत्ता पो पट्टवेइ, पढवित्ता णो णिविसइ, जाइं इमाइं थेराणं ठिइप्पकप्पाइं भवंति ताई आइयंचिय अइयंचिय पडिसेवेइ से हंद हं पडिसेवामि किं मे थेरा करिस्सति । पंचेहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मियं पारंचियं करेमाणे णाइक्कमइ तंजहा - सकुले वसइ सकुलस्स भेयाए अब्भुद्वित्ता भवइ, गणे वसइ गणस्स भेयाए अब्भुद्वित्ता भवइ, 'हिंसप्पेही, छिहप्पेही, अभिक्खणं अभिक्खणं पसिणाययणाई पउंजित्ता भवइ॥७॥
कठिन शब्दार्थ - साहम्मियं - स्वधर्मी साधु को, संभोइयं - साम्भोगिक, विसंभोइयं - विसम्भोगिक-संभोग से पृथक्, ण - नहीं, अइक्कमइ - अतिक्रमण-आज्ञा का उल्लंघन करता है, सकिरियठाणं - अनाचरणीय कार्य का, आलोइए - आलोचना करता है, पट्ठवेइ - लिये गये प्रायश्चित को उतारने के लिये तप आदि का सेवन करता है, णिव्विसइ - पूरी तरह से पालन करता है, अइयंचियउल्लंघन करके, पारंचिय - पारञ्चित, भेयाए - फूट डालने के लिए, हिंसप्पेही - हिंसा करने वाला, छिहप्पेही- छिद्रों को देखने वाला।
भावार्थ - पांच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ अपने साम्भोगिक स्वधर्मी साधु को विसम्भोगिक
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