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१२ / सत्य दर्शन
तनिक-सा भी व्यतिक्रम होता है, तो भीषण संहार हो जाता है। एक छोटा-सा भूकम्प ही प्रलय की कल्पना को प्रत्यक्ष बना देता है । संसार-भर के नियम और कायदे सब सत्य पर प्रतिष्ठित हैं ।
हमारा जीवन क्या है ? शरीर में जब तक गर्मी रहती है, तब तक उसे जीवित • समझा जाता है, और जब गर्मी निकल जाती है, तो उसे मरा हुआ करार दे दिया जाता है। जब तक गर्मी थी, तो शरीर पर एक मक्खी का बैठना भी बर्दाश्त नहीं होता था। शरीर के किसी भी भाग पर मच्छर बैठ जाए तो तत्काल हमें चेतना होती थी। किन्तु जब जीवन निकल जाता है, गर्मी निकल जाती है, तो फिर मक्खी-मच्छर की तो बात ही क्या, शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी आह नहीं निकलती । वह वहीं सड़ने के लिए और गलने के लिए है, पनपने के लिए नहीं है। मुर्दा शरीर में घाव लग जाए तो वह भरने के लिए नहीं होता किन्तु और चौड़ा होने के लिए होता है। तो हम समझते हैं कि जब तक शरीर में जीवन-शक्ति रहती है, वह काम देता है, अन्यथा बेकाम है । परन्तु हमारे जीवन का एक और भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, और वह है सत्य । जीवन में सत्य रहता है तो दुनिया भर के बल सही हो सकते हैं और दुरुस्त हो सकते हैं। जीवन में हिंसा है, क्रोध है, लोभ-लालच है और वासना है-ये सब जीवन के घाव हैं। सत्य के अभाव में ये दुरुस्त नहीं होने के। यही नहीं, बल्कि ये जीवन को ओर भी गलत बना देते हैं । सत्य के अभाव में यह घाव बढ़ते चले जाते हैं और छिपे-छिपे उनका बढ़ना मालूम ही नहीं होता ।
भगवान् महावीर ने बतलाया है कि- सत्य रूप जीवन की विद्यमानता में हिंसा काम, क्रोध, आदि के घावों को ठीक किया जा सकता है। सत्य की उपासना करने बाला कुछ भी गड़बड़ कर देगा तो भी कहेगा कि मुझ से भूल हुई है। जो भूल को भूल समझता है, वह उस भूल को दुरुस्त भी कर लेगा। मनुष्य एक बार चाहे हैवान ही क्यों न मालूम होने लगे, वह कितनी ही बड़ी गलती क्यों न कर बैठे, पर उसमें यदि सचाई है और वह यह कहने को तैयार हो जाता है कि मुझ से भूल हो गई है, तो आप समझिए कि उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ है। घाव कितना ही गहरा क्यों न हो, चोट कितनी ही गम्भीर क्यों न हो, कितना ही क्षत-विक्षत क्यों न हो गया हो, फिर भी सत्य उसकी मरहम पट्टी कर सकता है और फिर उसे जीवन-मार्ग पर लें आ सकता है।
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