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सत्य दर्शन / ६५.
तो पावापुरी में ही - सिद्ध-शिला में नहीं। जब निर्वाण हुआ तो आत्मा अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण ऊपर गई। ऊपर जाने पर भी सिद्ध-शिला पर रहना पड़ता है, रह जाती है या रहना हो गया है। यदि रहती है, ऐसा माना जाए, तो मुक्तात्माओं में औदायिक भाव स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि किसी भी स्थान पर रहना कर्मों के उदय का फल है। यह आत्मा नरक में जाती है और रहती है, तो वह किसी कर्म को उदय का ही फल है, स्वर्ग में रहना भी कर्मोदय का ही फल है। इसी प्रकार आत्मा मोक्ष
जाती है और अमुक जगह पर रहती है, यह दृष्टि रही तो फिर मुक्त जीवों में भी कर्म का उदय मानना पड़ेगा। भगवान् महावीर को अमुक कर्म का उदय था । अतः उसने उन्हें अमुक जगह पर पहुँचा दिया और भगवान् पार्श्वनाथ के अमुक कर्म ने अमुक स्थान पर पहुँचा दिया। ऐसा मानना उचित नहीं है और न सिद्धान्त इस मान्यता का समर्थन ही करता है ।
अभिप्राय यह है कि किसी भी भूमि में जाकर रहना और जहाँ रहना है, वहाँ रहने के इरादे से रहना और आगे न बढ़ना, यह सब बातें कर्मों के उदय का फल है, कर्मों के क्षय का, क्षायिक भाव का फल नहीं हैं। जैन शास्त्रकार कहते हैं कि मोक्ष तो जहाँ से मनुष्य निर्वाण प्राप्त करता है, वहीं हो जाता है। निर्वाण प्राप्त होने पर आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है और जहाँ तक ऊर्ध्वगमन का बाह्य साधन मिलता गया, ऊर्ध्वगमन होता रहा, जब साधन न रहा, तो ऊर्ध्वगमन भी रुक गया और इस प्रकार आत्मा वहीं रह गई, किन्तु रहने के इरादे से रही नहीं ।
आप कहें कि यह तो शब्दों की छीलछाल है, किन्तु उस सत्य को आपके मन में डालने के लिए ही हम इन शब्दों में अन्तर डालते हैं। इन्हें ठीक तरह समझने से सही आशय समझ में आ जाएगा।
राष्ट्रपति से चर्चा :
जैन शास्त्रकार कहते हैं कि आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है। जब दिल्ली में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी के साथ वार्तालाप हो रहा था, तो दार्शनिक दृष्टिकोण से एक प्रश्न चल पड़ा था - जैनधर्म आत्मा के सम्बन्ध में क्या विचार करता है ? संसार भर की भव्य आत्माओं के सम्बन्ध में उसका क्या विश्वास है ? क्या उसका विश्वास है कि प्रत्येक आत्मा उन्नति और विकास कर रही है और उसका काम नीचे
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