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सत्य दर्शन / ९३ अपने तथा दूसरों के जीवन को सँभालने की कोई बड़ी बारी प्रेरणा नहीं मिल पाती अर्थात् अत्यन्त दुःखमय स्थिति में जीवन का निर्माण नहीं हो पाता है। इसी प्रकार अत्यन्त सुख में भी जीवन का विकास संभव नहीं हैं। जहाँ भोग-विलास की अजस धारा प्रवाहित हो रही हो, वहाँ भी जीवन के निर्माण का अवसर मिलना कठिन है
तो, नरक और स्वर्ग-दोनों जगह जीवन का निर्माण संभव नहीं । क्यों कि एक तरफ अत्यन्त दुःख और दूसरी तरफ अत्यन्त सुख है। किन्तु मानव-जीवन ऐसा नहीं है । यहाँ
चक्रवत्परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च । मानव-जीवन में दुःख और सुख गाड़ी के पहिये की भाँति घूमते रहते हैं। कभी दुःख आ पड़ता है, तो कभी सुख आ जाता है। यही इस जीवन का माधुर्य है। इससे सुख-दुःख को समझने की प्रेरणा मिलती है । जब सुख और दुःख दोनों मिल कर हमारा जीवन बनाने को तैयार हो जाते हैं, तो जीवन की श्रेष्ठता हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है।
एक कवि ने बड़ी ही सुन्दर कल्पना की है। आकाश काले-काले मेघों से मँढ़ा हो और चाँद उनमें छिपा हुआ हो और बाहर न निकल पाता हो-सारी रात उसे बादलों में छिपा रहना पड़े, तो वह चाँद हमें सुन्दर नहीं मालूम होता । इसके विपरीत, आंकाश जब एकदम निरभ्र होता है और चाँद स्पष्ट रूप से साफ नजर आता है और बादल का एक टुकड़ा भी नहीं रहता है, तो वह भी हमारे मन को कोई विशेष प्रेरणा नहीं देता। किन्तु जब आँकाश में मेघ की घटाएँ छितरी होती हैं और चाँद उनमें लुका-छिपी करता है और कभी अन्दर और कभी बाहर आ जाता है, तो वह दृश्य बड़ा ही मनोरंजक होता है। मनुष्य घंटों तक उस चाँद के साथ अपने मन को जुटाए रखता है। उससे मनुष्य को प्रकृति की ओर से एक महान् प्रेरणा मिलती है। ___ यही बात हम मनुष्य के जीवन में भी देखते हैं । मनुष्य का जीवन भी सुख और दुःख के साथ लुका-छिपी करता रहता है। वह कभी दुःख में आता है और फिर सुख में आने के लिए प्रयत्न करता है। सुख में आता है, फिर देखते ही देखते दुःख की काली घटा में विलीन हो जाता है। इस जीवन में यह क्रम चलता ही चलता है। लाख प्रयत्न करके भी कोई सुख-दुःख के इस अनिवार्य चक्र से मुक्त नहीं रह सकता।
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