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९२/ सत्य दर्शन
चूर्णीकृत्य पराक्रमान्मणिमयं, स्तम्भं सुरः क्रीडया, मेरौ सन्नलिकासमीरवशतः क्षिप्त्वा रजो दिक्षु चेत् । स्तम्भं तैः परमाणुभिः सुमिलितैः कुर्यात्स चेत्पूर्ववत्,
भ्रष्टो मर्त्यभावात्तथाप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ॥ किसी देवता को क्रीड़ा करने की सूझी। उसने एक मणिमय खंभे को अपने दिव्य पराक्रम से बारीक पीस डाला और उसका चूरा-चूरा कर दिया। फिर वह एक लाख योजन ऊँचे सुमेरु पर्वत पर चढ़ा। उसने स्तम्भ के उस चूरे को नली में भर-भर कर इधर-उधर, चारों दिशाओं में हवा के साथ उड़ा दिया। इसके बाद उस देवता को इच्छा हुई कि मैं स्तम्भ के बिखरे हुए रज-कणों को एकत्र करूँ और उन्हें जोड़ कर फिर जैसे का तैसा स्तम्भ बना दूँ । सोचिए, ऐसा करना देवता के लिए भी कितना कठिन है ? बतलाया गया है कि कदाचित् वह देवता उन सब रज-कणों को एकत्र करके पुनः मणिमय स्तम्भ का निर्माण करने में समर्थ हो सकता है, मगर पुण्यहीन पुरुष के लिए एक बार मनुष्य-भव से च्युत होकर फिर मनुष्य-भव पा लेना कठिन है।
मानव-जीवन इतना दुर्लभ क्यों है ? आखिर किस कारण यह इतना स्पृहणीय समझा जाता है ? इन प्रश्नों पर विचार करेंगे, तो प्रतीत होगा कि आध्यात्मिक उत्कर्ष की जितनी भी साधनाएँ हैं, उन सब का स्रोत मनुष्य की ओर ही बहता है। सत्य, अहिंसा, दया, करुणा और कर्तव्य आदि जो भी हमारे आदर्श हैं, उनका उदय और परिपाक इसी जीवन में संभव है।
देवताओं की दुनिया बहुत बड़ी दुनिया मानी जाती है। भारतीय दर्शनों ने भोग-विलास की दृष्टि से देवताओं को बहुत ऊँचा माना है, परन्तु चरित्र-बल की दृष्टि से और जीवन-विकास की दृष्टि से उन्हें मनुष्य से नीचा पद दिया है। दूसरी योनियों की तो बात ही छोड़िए, वहाँ चेतना का उतना विकास ही नहीं है। अतएव मनुष्य-योनि के सिवाय किसी भी अन्य योनि में जीवन की साधना अच्छी तरह हमारे सामने खड़ी नहीं होती।
जैनशास्त्र और दूसरे साथी भी कहते हैं कि न नरक में ही जीवन बनता है और न स्वर्ग में ही। इस कथन का ठीक तौर से विश्लेषण किया जाए, तो प्रतीत होगा कि जहाँ अत्यन्त दुःख है, कष्ट है, और सारा जीवन आँसुओं की धार में बहता रहता है, वहाँ
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