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सत्य दर्शन/१६५ राजनीतिज्ञ आज विश्व के व्यवस्थापक समझे जाते हैं, सत्य की दृष्टि से उनका चरित्र आज अत्यन्त शोचनीय है। आज की अन्तर्राष्ट्रीय समस्या इसी कारण उलझनों से भरी हुई दिखाई देती है।
एक देश का दूसरे देश के साथ आज कोई समझौता हुआ और सधिनामा हुआ और उसकी स्याही भी नहीं सूखने पाई कि उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं। यह असत्य नहीं, तो क्या है ? इस अनैतिकता का जन-साधारण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब श्रेष्ठ समझे जाने वाले ऐसा आचरण करते हैं, तो साधारण लोग भी उनका ही अनुकरण करते हैं।
__ "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः" "बड़े आदमी जिस राह पर चलेंगे, छोटे भी उसी पर चलेंगे।"
किन्तु, एक दिन वह था कि मनुष्य ने स्वप्न में कह दिया था, तो उसे भी पूरा करके दिखलाया था। भारतीय वैदिक साहित्य में राजा हरिश्चन्द्र की कहानी प्रसिद्ध है। उन्होंने स्वप्न में राज्य दे दिया था, तो दिन आते ही वह, जिसे दिया था, उसकी तलाश में थे। वह चाहते थे कि जिसे राज्य दे दिया है, उसे सौंप दें। इस प्रकार स्वप्न में किए हुए वायदे को भी वे पूरा करने के लिए उत्कंठित हैं।
फिर ऐसा युग आया कि लोग कहने लगे-स्वप्न तो भ्रम है। उसमें वास्तविकता नहीं है। वह तो यों ही आया करता है। उसकी जवाबदारियों को कहाँ तक पूरा करेंगे।
उसके बाद जागृत अवस्था में भी किए गए वायदे तोड़े जाने लगे। मुख से कह कर मुकरने लगे। जब कहने का कोई मूल्य न रह गया, तो हस्ताक्षर कराए जाने लगे। अर्थात् मनुष्य ने जब स्वप्न के और वाणी के सत्य का पालन करना छोड़ दिया, तो लिखा-पढ़ी का सूत्रपात हुआ।
कुछ समय बीता और असत्य का रोग और अधिक प्रबल हो गया। तब हस्ताक्षरों का भी कोई मूल्य न रह गया। लोग कहने लगे-दबाव से लिखवा लिया है। इस स्थिति में बीमारी का नया इलाज सोचा गया। गवाहों के हस्ताक्षरों कर आविष्कार हुआ।जब एक गवाह से काम न चला, तो दो गवाहों का होना आवश्यक समझा गया।
किन्तु, आज इन गवाहों का भी कोई मूल्य नहीं रह गया है। आज गवाह भी ठोकरें खाते फिरते हैं । अठन्नी और चवन्नी में, चाहे जितने गवाह आप खड़े कर सकते
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