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सत्य दर्शन / १८१
हुए स्वरूप को तलाशना, बाहर के आवरणों को हटाकर अपने को खोजना और सही रूप में अपने को पा लेना । दीक्षार्थी अपने विशुद्ध परमतत्त्व की खोज के लिए निकल पड़ा एक अन्तर्यात्री है। वह अपने में, अपने द्वारा अपनी स्वयं की खोज करने के लिए निकल पड़ा है। यह यात्रा, अन्तर्यात्रा इसलिए है, कि यह बाहर में नहीं, अन्दर में होती है। साधक बाहर से अन्दर में गहरा, और गहरा उतरता जाता है, आवरणों को निरन्तर तोड़ता जाता है, फलस्वरूप अपने परम चैतन्य, चिदानन्द स्वरूप परमात्मतत्त्व के निकट, निकटतर होता जाता है। यह खोज किसी एक जन्म में प्रारम्भ होती है, और साधक में यदि तीव्रता है, तीव्रतरता है, तो उसी जन्म में पूरी भी हो जाती है, तत्काल तत्क्षण ही पूरी हो जाती है। और यदि साधक में अपेक्षित तीव्रता एवं तीव्रतरता नहीं है, तो कुछ देर लग सकती है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्मों में जाकर यह खोज पूरी होती है-"जक जन्म संसिद्धिस्ततो याति परां गतिम्।" जन्मों की संख्या का सत्य नहीं है, सत्य है, केवल एक जो चल पड़ा है, ईमानदारी के साथ इस पथ पर, वह एक न एक दिन देर सबेर मंजिल पर पहुँच ही जाता है। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है। ___ मैं चाहता हूँ, आज का साधु-समाज जिज्ञासु एवं मुमुक्षु जनता के समक्ष दीक्षा और दीक्षा के मूल वैराग्य के वास्तविक स्वरूप को स्पष्टता के साथ उपस्थित करे। खेद है, दीक्षा और वैराग्य के सम्बन्ध में बहुत कुछ गलत बातें उपस्थित की जा रही हैं, जिनसे दीक्षा का अपना परम पवित्र लक्ष्य बिन्दु धूमिल हो गया है, एक तरह से उसे भुला ही दिया गया है। और इसका परिणाम है, कि साधक स्वयं भी भ्रान्त हो जाता है, और साथ ही दर्शक जनता भी। लक्ष्य स्थिर किए बिना चल पड़ने का ही यह परिणाम
संसार मिथ्या नहीं:
मैं सुनता हूँ, साधुओं के उपदेश की घिसी-पिटी एक पुरानी-सी परपरागत प्रचलित भाषा- "संसार असार है। कोई किसी का नहीं है। सब स्वार्थ का माया जाल है। नरक में ले जाने वाले हैं, ये सगे-सम्बन्धी । जीवन में सब ओर पाप ही पाप है। पाप के सिवा और है ही क्या यहाँ ? अतः छोड़ो यह सब प्रपंच। एक दिन यह सब छोड़ना तो है ही, फिर आज ही क्यों न छोड़ दो। सर्वत्र झूठ का पसारा है, अंधकार है, सघन
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