Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 200
________________ सत्य दर्शन / १८९ परिवार त्योहार मनाने लगा और फिर सामाजिक जीवन में पर्यो, त्योहारों की लड़ियाँ बन गईं। समाज और राष्ट्र में त्योहारों की एक लम्बी श्रृंखला बनती चली गई। जीवन का क्रम जो अब तक व्यक्तिवादी दृष्टि पर घूम रहा था, अब व्यष्टि से समष्टि की ओर घूमा । व्यक्ति ने सामूहिक रूप धारण किया और एक की खुशी, एक का आनन्द, समाज की खुशी और समाज का आनन्द बन गया। इस प्रकार सामाजिक भावना की भूमिका पर प्रचलित हुए व्रत, सामाजिक चेतना के अग्रदूत सिद्ध हुए। नयी स्फूर्ति, और नया आनन्द समाज की नसों में दौड़ने लगा। प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के अनुशीलन से ऐसा लगता है, कि इस समय में पर्व, त्योहार जीवन के आवश्यक अंग बन गए थे। एक भी दिन ऐसा नहीं जाता था, जब कि समाज में पर्व-त्योहार व उत्सव का कोई आयोजन नहीं हो। इतना ही नहीं, बल्कि एक-एक दिन में अनेकानेक पर्यों का सिलसिला चलता रहता था। सामाजिक जीवन में बच्चों के पर्व अलग, युवकों के पर्व अलग तथा महिलाओं के पर्व अलग और वृद्धों के पर्व अलग। इस दृष्टि से भारत का जन-जीवन नित्य-प्रति अतीव उल्लसित और आनन्दित रहा करता था। उसमें आशा, उल्लास और आमोद भर गया था। व्रतों का संदेश: हमारे व्रतों की वह लड़ी भले ही कुछ छिन्न-भिन्न हुई, फिर भी परम्परा के रूप में वह आज भी हमें महान अतीत की याद दिलाती है। हमारा अतीत उज्ज्वल रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं । किन्तु वर्तमान कैसा गुजर रहा है , यह थोड़ा विचारणीय है। इन व्रतों के पीछे सिर्फ अतीत की याद को ताजा करना ही हमारा लक्ष्य नहीं है बल्कि उसके प्रकाश में वर्तमान को भी देखना आवश्यक है। अतीत का वह गौरव, जहाँ एक ओर हमारे अतीत जीवन का एक सुनहला पृष्ठ खोलता है, वहाँ दूसरी ओर वर्तमान में शान के साथ जीना सिखाता है, साथ ही भविष्य के लिए नया पृष्ठ लिखने का संदेश भी देता है। जीने की कलाः यद्यपि जैन धर्म की परम्परा निवृत्ति मूलक रही है, उसके अनुसार जीवन का लक्ष्य भोग नहीं त्याग है, बन्धन नहीं मोक्ष है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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