Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 209
________________ सांस्कृतिक परम्पराओं का महत्त्व (ii) 'पर्व' मानव-जीवन का एक विशिष्ट मंगल-प्रसंग होता है। पर्व के क्षणों में अन्तर्मन का उल्लास, उत्साह, प्रमोद एवं रस इतनी तीव्रता से उभर कर आता है, कि उससे मानव-समाज का हर अंश, हर अंग आप्लावित हो जाता है। एक दिव्य जीवन रस मन की धरती पर उतर आता है। मानव हृदय के भाव पक्ष की एक महान् उत्कृष्ट एवं शिखर परिणति है - 'पर्व' । लोक-चेतना के पर्वों का महत्त्व : पर्वों के दो रूप हैं - एक लौकिक और दूसरा लोकोत्तर। एक भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक । एक वाह्य तो दूसरा आन्तरिक । लौकिक पर्व परिवार, समाजे तथा राष्ट्र आदि की हृदयप्रधान प्रमोद चेतना से सम्बन्धित होते हैं। प्राचीन युग से चले आए शरद-उत्सव, श्रावणी, दीपमाला और होलिका बसन्तोत्सव आदि, और अभी के ये स्वतन्त्र तथा गणतन्त्र दिवस आदि पर्व इसी श्रेणी में आते हैं । उक्त पर्वों में सरस्वती - शिक्षा, लक्ष्मी धन संपत्ति, शक्ति-विजय श्री आदि का कोई न कोई ऐसा भौतिक ऐश्वर्य का पक्ष होता है, जो मानव-समूह को हर्ष और उल्लास से तरंगित कर देता है। समाज की सामूहिक रस-चेतना एक ऐसे प्रवाह में प्रवाहित होती है, कि हजारों-लाखों मानव अपनी क्षुद्र वैयक्तिक सीमाओं को लांघ कर एक धारा में बहने लगते हैं। इस प्रकार 'परस्पर भावयन्तः' के रूप में जन-जागरण के प्रतीक हैं-लोक पर्व भी । कम से कम लोक - चेतना के इन पर्वों में द्वेष, घृणा, वैर और विग्रह की दुर्भावना से मुक्त होकर पारस्परिक स्नेह, सहयोग एवं सद्भाव की एकात्म रूप अनुराग़-धारा में डुबकी लगाने लगता है-मानव समाज । अतः लोक चेतना के पर्वों की भी अपनी एक विशिष्ट उपादेयता है, जिसे यों ही अपेक्षा की दृष्टि से नकारा नहीं जा सकता । लोक-चेतना के पर्व, एक खतरा: लोकपर्वों की वेगवती धारा में एक खतरा भी है, जिसकी ओर लक्ष्य रखना अतीव आवश्यक है। लोकपर्वों में रजोगुण की प्रधानता रहती है। उनमें सक्रियता है, गति है, प्रवहणशीलता है, किन्तु वे कुछ दूर जाकर उल्लास के साथ विलास की दिशा भी पकड़ लेते हैं । मानव-मन की भोग बुद्धि धीरे-धीरे अनियंत्रित होती जाती है, फलतः सांस्कृतिक पर्व सर्वथा असांस्कृतिक हो जाते हैं। जनता के स्वच्छ उल्लास को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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