Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 213
________________ २०२/ सत्य दर्शन मूल अर्थ खो देने के बाद वह केवल समय पर दुहराने जैसा एक प्रदर्शन भर हो जाता है। पर्युषण भी जैन परम्परा में कुछ ऐसी ही स्थिति पर पहुंच रहा है। विश्व मैत्री का उद्घोष करने वाले अपनी ही शाखा-प्रशाखाओं में मैत्री भावना नहीं साध पाते हैं । खेद है, परस्पर में वही घृणा, निन्दा, कलह और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति घटने की अपेक्षा बढ़ती ही जा रही है। अपेक्षा है, पर्युषण को अपने नाम के अनुसार यथार्थ आध्यात्मिक रूप देने की। और, जैन समाज ही क्यों पर्युषण का विस्तार जैनेतर समाज में भी होना चाहिए। यह कोई साम्प्रदायिक क्रिया-काण्ड नहीं है। यह तो एक विशुद्ध आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अन्तर्जीवन के परिमार्जन की एक आन्तरिक साधना है। मैं समझता हूँ, पर्युषण पर्व की आध्यात्मिक चेतना के सम्बन्ध में किसी का कोई विवाद नहीं है। अतः अपेक्षा है, पर्युषण के ऊपर से वाह्य आवरण को हटाकर उसके आंतरिक विश्व-मंगल आदर्श को, बिना किसी भेद-भाव के सर्व-साधारण जनता के समक्ष उपस्थित करने की। अक्षय तृतीया का मधुर-दान आज के दिन, जो प्राचीन स्मृतियाँ, पुरानी यादें स्मृति-पट पर अभर-उभर कर आ रही हैं, वे इतनी मधुर हैं, कि मन में आनन्द की धारा बहने लगती है। अभी एक स्रोत में भगवान ऋषभदेव को याद किया, उनके पूरे परिवार को याद किया। इसका अर्थ यह है कि महापुरुष की स्मृति के साथ उनका पूरा परिवार स्मृति में साकार हो उठता है। महापुरुष एक ग्रह होते हैं और शेष सब उपग्रह और उपग्रह उस ज्योतिर्मय ग्रह के चारों ओर घूमते रहते हैं । भगवान् ऋषभदेव इस धरा के, मानव-जाति के प्रथम ग्रह हैं। इस दृष्टि से उन्हें आदिनाथ कहा है, आदि तीर्थंकर कहा है, आदि राजा कहा है और कर्म-योग का आदि प्रवर्तक कहा है। भगवान् ऋषभदेव हर कार्य में आदि हैं और हर क्षेत्र में पहले व्यक्ति हैं। उस समय का चित्र इतना महत्वपूर्ण है, कि वह जनता जो कर्म से पूर्णतः शून्य है, जिसको केवल खाना आता है, न तो खाद्य पदार्थों को प्राप्त करने की कला आती है, और न दूसरों को खिलाना आता है। वह जनता, जो कि बिलकुल अंधकार में भटक रही थी, उसे ऋषभदेव ने कर्म करना सिखाया, अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया। उन्होंने कहा, कि तुमको जो कुछ पाना है, अपने श्रम से पाना है. अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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