Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 212
________________ सत्य दर्शन / २०१ करता है, अपने अतीत और भविष्य के कर्त्तव्य कर्मों की जाँच-पड़ताल नहीं करता है तो वह साधक ही नहीं है। किं मे कडंकिंच में किच्च सेसं न सक्कणिज्जं न समायरामि। वैदिक धर्म के महान् उपनिषद् ग्रन्थ ईसावास्यं' में भी यही कहा है-'कृतं स्मर'। अर्थात् अपने किए को याद कर । अच्छाई को याद कर, बुराई को याद कर । जब साधक अपने किए को याद करता है, अपने अतीत पर दृष्टिनिक्षेप करता है, तो उसे पता लगता है, कि मैंने क्या खोया है, क्या पाया है ? सत्कर्म के प्रति मुझमें कहाँ क्या शिथिलता है ? कौन-सी टियाँ हैं, मेरे जीवन में और वे क्यों हैं ? मुझे तन-मन का आलस्य आगे नहीं बढ़ने देता ? या समाज का, सम्प्रदाय का, या पंथ का भय मुझे उठने नहीं देता? या अन्दर की वासनाएँ ही कुछ ऐसी हैं, जो मुझे अन्दर-ही-अन्दर खोखला कर रही हैं ? पर्युषण इसी कृतं स्मर' का महान् पर्व पर्युषण वैयक्तिक स्तर पर भी हो सकता है। ऐसा होता भी है, परन्तु जैन-परम्परा के महर्षियों ने इसे सामजिकता का विराट रूप देकर इसे पर्व ही नहीं, पर्वाधिराज बना दिया है। वैयक्तिक आध्यात्मिक चेतना को सामाजिक चेतना का रूप देना, हमारे दार्शनिक चिन्तन का नवनीत है। पर्युषण पर्व में हजारों-हजार साधक एक साथ बैठकर जब प्रतिक्रमण करते हैं। अपने विगत की भूलों के प्रति 'मिच्छा मि दुक्कडं' का समवेत उद्घोष करते हैं, अपने पूर्व के महान, अर्हन्तों एवं सिद्धों की भक्तिरस में झूमते हुए स्तुति-वंदना करते हैं और "मित्ती मे सब्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणइ' अर्थात् विश्व के सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है। किसी के साथ भी जाति, धर्म या राष्ट्र आदि के रूप में मेरा वैर और घृणा का भाव नहीं है, यह समवेत घोषणा करते हैं, तो कितना अद्भुत दृश्य होता है वह ! लगता है सद्भाव, स्नेह और प्रेम की पवित्र मानसी गंगा की अजस्र धारा बह निकली है, वैर और घृणा के दुर्विचार रूप कूड़े-करवट को अपनी चिदाकाश चूमती लहरों से बहा कर दूर फेंक रही है। प्रतिक्रमण की साधना के बाद क्षमा याचना के समय जब हाथ जोड़कर मस्तक झुकाए साधक एक दूसरे से, अपने विरोधी से भी क्षमा माँगते हैं तो मालूम होता है, जन-जन के मन में कब का सोया दिव्य देवत्व जाग उठा है। सामूहिक धर्म-साधना का कुछ रूप ही अनोखा होता है पर्युषण को व्यापकता चाहिए : जब भी कोई साधना रूढ़ि का रूप ले लेती है, तो वह निष्प्राण हो जाती है। अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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