Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 211
________________ २०० / सत्य दर्शन लोकोत्तर पर्वों का मुकुटमणि, पर्युषण पर्व : प्रायः प्रत्येक धर्म-परम्परा में लोकोत्तर पर्वों का प्रचलन हुआ है। व्यक्तिनिष्ठ साधना को समूह के रूप में समाजनिष्ठ बनाने के अनेक उपक्रम हुए हैं, और वे सफल भी हुए हैं। परन्तु जैन- परम्परा का पर्युषण पर्व इस दिशा में अपनी एक अलग ही विलक्षण विशेषता रखता है। पर्युषण पर्व वार्षिक पर्व है। यह अन्तरात्मा के निकट में होने का पर्व है । परिश्रम सब ओर से लौटकर पूर्ण रूप से आत्मा के निकट में, निकट में क्या, आत्मा में ही आत्मा का श्रमसमाहित हो जाना है। कर्म क्षेत्र में संघर्षरत होने के कारण साधारण साधक की आत्म चेतना बाहर में फैल जाती है। अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक सीमाओं को लांघकर राग द्वेष के अविशुद्ध द्वन्द्व चक्र में उलझ जाती है। 'कर्म से इन्कार नहीं है। किन्तु वह रागद्वेष मुक्त वीतराग धरातल पर होना चाहिए। गंगा को बहना है, ठीक है, पर गंगा को गंगा के रूप में ही बहना है, सड़ते और बदबू देते गन्दे नाले के रूप में नहीं बहना है। किन्तु साधारण साधक कर्म की गंगा को निर्मल नहीं बनाए रख सकता है। कहीं-न-कहीं वह भूल ही जाता है, फलतः कोई-न-कोई गलत कदम उठा ही लेता है। पर्युषण पर्व उसी का समाधान प्रस्तुत करता है । पर्युषण पर्व पर साधक अपने विगत जीवन का सर्वेक्षण करता है, क्या खोया, क्या पाया का लेखा-जोखा लगाता है । अपने आध्यात्मिक आय-व्यय की, हानि-लाभ की जाँच करता है। कुशल व्यापारी प्रतिदिन ही अपने आय-व्यय को परखता है। वर्ष भर के आय-व्यय का तो अवश्य ही हिसाब करना होता है, उसे यदि वह ऐसा न करे, तो सारा व्यापार अंधकार में डुबा रहेगा, और एक दिन सब चौपट हो जाएगा। 'पर्युषण' जीवन की डायरी का सिंहावलोकन है, जीवन रूपी बही खाते की जाँच पड़ताल है। यह अतीत का स्मरण है, कि बीता वर्ष कैसा बीता है ? वह पशुता में गुजरा या मानवता में ? किसका कितना अंश रहा है? पर्युषण पर्व में यह देखना होता है कि अहिंसा, सत्य, संयम और सदाचार की साधना में प्रगति के चरण कहाँ तक आगे बढ़े हैं ? आध्यात्मिक प्रगति में कहाँ क्या रोड़ा अटका है ? भगवान महावीर ने कहा है-साधक को प्रतिदिन सुबह-शाम यह देखना है, विचार करना है कि मैंने अब तक क्या कर लिया है? और क्या करना अभी बाकी है। ऐसा कौन-सा सत्कर्म शेष रहा है, जो मैं कर सकता था, करने की मेरी क्षमता थी, स्थिति अनुकूल भी थी, फिर भी मैं नहीं कर पाया ? और वह क्यों नहीं कर पोषा ? यदि कोई साधक ऐसा विचार नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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