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सत्य दर्शन / १९७ निष्काम अथवा निःस्वार्थ व्रत का ही स्थान ऊँचा होता है।" वह जीवन को पवित्रता प्रदान करता है।
वस्तुतः व्रतों के साथ वणिक वृत्ति की भावना, व्रतों का उपहास ही है। अतः सभी व्रतों के मूल में बस ये ही बातें मूल रूप से निहित हैं-आचरण की स्वच्छता.
आंतरिक शुद्धता एवं निष्काम-भावना। इन्हीं तीनों का समन्वित रूप सर्वश्रेष्ठ व्रतों का नियामक होता है। इन्हीं तीनों की पावन धारा के त्रिवेणी संगम पर व्यक्ति अपने लक्ष्य की अन्तिम परिणति पाता है, आध्यात्मिक भावना का चरम उत्कर्ष यहीं से उद्भूत होता है। ___ मानव संस्कृति का विकास इसी प्रकार के श्रेष्ठ व्रतों के पावन आधान में होता है। जहाँ आचरण की पवित्रता जीवन के स्वस्थ विकास की पथ-दिशा प्रशस्त करती है, वहाँ आतंरिक शुद्धता एवं निष्काम भावना वीतरागता का पथ प्रशस्त कर मानव-आत्मा की विश्वात्मा का महान गौरव प्रदान करती है। अतः स्पष्ट है, इस प्रकार के श्रेष्ठ व्रत मानव संस्कृति के गौरव रत्न हैं। अपने इस गौरवमय योगदान के द्वारा हमारे व्रत हमारी पुनीत संस्कृति को प्रारम्भ से परिपुष्ट करते आये हैं, और युगों-युगों तक सम्बर्द्धित करते रहेंगे।
कुन्दन भवन, व्यावर, राजस्थान, अगस्त, १९५०
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