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सत्य दर्शन / १९५ नगर के हजारों नर-नारी उनके पीछे हो लिए। इस नवनिर्मित नगर के आकर्षण व सौन्दर्य के कारण लोग वहाँ जाकर बसने लगे, और राजा आनन्द से रहने लगा।
यही बात-जीवन की है । इस संसार से परे आगे नरक की भीषण यातनाएँ-ज्वालाएँ हमें अभी से बेचैन कर रही हैं, और हम सोचते हैं, कि आगे नरक में हमें भयंकर कष्ट भोगना पड़ेगा। किन्तु यह नहीं सोचते, कि इस नरक को बदल कर स्वर्ग क्यों न बना दिया जाए। यह सच है, कि यहाँ से एक कौड़ी भी हमारे साथ नहीं जायेगी। किन्तु इस जीवन में रहते-रहते तो हम वहाँ का साम्राज्य बना सकते हैं। इस जीवन के तो हम सम्राट हैं, शहंशाह हैं, यह ठीक है, कि जीवन के साथ मौत की भयंकर घाटी भी है, नरक आदि की भीषण यंत्रणाएँ भी हैं, जो प्राणी को उदरस्थ करने की प्रतीक्षा में सदैव लगी रहती हैं, किन्तु यदि मनुष्य अपने इस जीवन की अवधि में दान दे सके, तपस्या कर सके, त्याग, ब्रह्मचर्य, सत्य आदि का पालन कर सके, साधना का जीवन बिता सके, और इस प्रकार पहले से ही आगे की तैयारियाँ कर सके, तो इस संसार की यात्रा में, इस जीवन में उसे हाय-हाय करने की आवश्यकता नहीं रहती। वह वर्तमान के साथ भविष्य को भी उज्ज्वल बना सकता है। उसके दोनों जीवन आनन्दमय हो सकते हैं। व्रतों की फलश्रुतिः
इस प्रकार जितने भी पर्व-त्योहार आते हैं, उनका यही संदेश है, कि तुम इस जीवन में आनंदित रहो और अगले जीवन में भी आनन्दित रहने की तैयारी करो। जिस प्रकार यहाँ पर त्योहारों की खुशी में मचलते-उछलते हो, उसी प्रकार अगले जीवन में भी उछलते रहो।
हमारे व्रत लोगों से यही कहते हैं, कि आज तुम्हें जीवन का वह साम्राज्य प्राप्त है, जिस साम्राज्य के बल पर तुम दूसरे हजारों-हजार साम्राज्य खड़े कर सकते हो। तुम अपने भाग्य के स्वयं विधाता हो, अपने सम्राट स्वयं हो। तुम्हें अपनी शक्ति का भान होना चाहिए । मौत के भय से काँपते मत रहो, बल्कि ऐसी साधना करो, ऐसा प्रयत्न करो, कि वे भय दूर हो जाएँ और परलोक का भयंकर जंगल तुम्हारे साम्राज्य का सुन्दर स्वदेश बन जाए । पर्व मनाने की यही परम्परा है, पर्युषण की यही फलश्रति है, कि जीवन के प्रति निष्ठावान बनकर जीवन को निर्मल बनाओ, इस जीवन में अगले जीवन का प्रारम्भ करो। जब तुम्हें यहाँ की अवधि समाप्त होने पर आगे की ओर
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