Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 197
________________ सास्कृतिक परम्पराओं का महत्त्व (i) मानव-जाति के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है, कि आदि काल के अकर्म-युग से मनुष्य ने जब कर्म-युग में प्रवेश किया, तब उसके जीवन का लक्ष्य अपने पुरुषार्थ के आधार पर निर्धारित हुआ । जैन परम्परा और इतिहास के अनुसार उस मोड़ के पहले का युग, एक ऐसा युग था, जब मनुष्य अपना जीवन प्रकृति के सहारे पर चला रहा था, उसे अपने आप पर भरोसा नहीं था, या यों कहिए, कि उसे अपने पौरुष के प्रति कुछ ध्यान ही नहीं था। उसकी प्रत्येक आवश्यकता प्रकृति के हाथों पूरी होती थी, भूख-प्यास की समस्या से लेकर जीवन की अन्य सभी समस्याएँ प्रकृति के द्वारा हल होती थीं। इसलिए वह प्रकृति की उपासना करने लगा। कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्रियों के आधार पर अपना जीवन निर्वाह करता। इस प्रकार आदि युग का मानव प्रकृति के हाथों में खेला करता था । उत्तर कालीन ग्रन्थों से पता चलता है, कि उस युग के मानव की आवश्यकताएँ बहुत ही कम थीं। उस समय भी पति-पत्नी होते थे, पर उनमें एक दूसरे का सहारा पाने की आकांक्षा, उत्तरदायित्व की भावना नहीं थी। अतः वे पति-पत्नी नहीं, केवल स्त्री-पुरूष थे-नर और मादा थे । वे अपनी अभिलाषाओं और अपनी आवश्यकताओं के सीमित दायरे में बंधे थे। एक प्रकार से वह युग उत्तरदायित्वहीन था, सामाजिक तथा पारिवारिक सीमाओं से मुक्त एक स्वतन्त्र जीवन था, कल्पवृक्षों के द्वारा तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी, इसलिए किसी को भी उत्पादन-श्रम एवं जिम्मेदारी की भावना का बंधन नहीं था, सभी अपने में मस्त थे, एकाकी थे। अकर्म-भूमि की उस अवस्था में मनुष्य बहुत लम्बे काल तक चलता रहा, मानव की पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ बढ़ती गईं। किन्तु फिर भी उस जाति का विकास नहीं हुआ। उनके जीवन का क्रम विकसित नहीं हुआ, उनके जीवन में संघर्ष कम थे, लालसाएँ और आकांक्षाएँ कम थीं । जीवन में भद्रता एवं सरलता का वातावरण था । उनका स्वभाव, प्रकृति से ही शान्त और शीतल था। सुखी होते हुए भी उनके जीवन में ज्ञान एव विवेक की कमी थी, वे सिर्फ शरीर के क्षुद्र घेरे में बन्द थे। संयम, साधना तथा आदर्श का विवेक उस जीवन में नहीं था। यही कारण था कि उस काल में एक भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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