Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 195
________________ १८४ / सत्य दर्शन निवृत्ति और प्रवृत्तिः बाह्य जगत् की दृष्टि से दीक्षा का उद्देश्य, जनता में अशुभ की निवृति एवं शुभ की स्थापना है। जनता को हर प्रकार के अन्ध- - विश्वासों से मुक्त करना और उस यथार्थ सत्य का परिबोध कराना, साधु-जीवन का सामाजिक कर्तव्य है । साधु अंधकार का नहीं, प्रकाश का प्रतीक है, अशान्ति का नहीं, शान्ति का संदेशवाहक है, भ्रान्ति का नहीं सत्य का पक्षधर है। वह समाज का निर्माता है, समाज के नैतिक पक्ष को उजागर करने वाला है। वह अन्दर में तो मूक, चुपचाप निष्क्रियता से प्रवेश करता है, किन्तु बाहर समाज में उसका प्रवेश सिंह - नाद के साथ पूर्ण सक्रियता से होता है। अतः दीक्षित साधुओं का सामाजिक दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा-सूत्र होना चाहिए, तुम सर्वप्रथम केवल एक मनुष्य हो तुम्हारी कोई जाति नहीं है, तुम्हारा कोई पंथ, वर्ण या वर्ग नहीं है । न तुम्हारा कोई एक प्रतिबद्ध समाज है और न राष्ट्र है। तुम सबके हो और सब तुम्हारे हैं। तुम एक विश्व-मानव हो। विश्व की हर अच्छाई, तुम्हारी अपनी है। तुम्हारा हर कर्म, विश्व-मंगल के लिए प्रतिबद्ध है। तुम्हारी अहंता और ममता का उदात्तीकरण होना चाहिए, इतना उदात्तीकरण कि उसमें समग्र विश्व समा जाए। इस संदर्भ में एक प्राचीन विश्वात्मा मुनि के शब्द दुहरा देता हूँ ☆ अहंता-ममता भावस्, त्यक्तुं यदि न शक्यते । अहंता - ममताभावः सर्वत्रैव विधीयताम् ॥ ममता का विस्तार: उक्त पवित्र विचार के प्रकाश में ही आज साधुओं को दीक्षित करने की आवश्यकता है। क्षुद्रहृदय-साधु से बढ़कर कोई बुरी चीज नहीं है, दुनियाँ में । सच्चा साधु वह है, जो विश्वात्मा है। विश्वात्मा भाव में से ही परमात्मभाव प्रस्फुटित होता है। कुछ ऐसे ही प्रबुद्ध, विवेकी एवं महामना साधु-जनों की आज विश्व को बहुत बड़ी अपेक्षा है। साधु का अर्थ ही सज्जन है। वह सज्जनता का, शालीनता का ध्रुव केन्द्र है। इस प्रकार साधु संस्था पर विश्व में सर्वतोमुखी सज्जनता की प्रतिष्ठा का दायित्व है । आज विश्व की भौतिक प्रगति ने मानव को सब ओर से असंतुष्ट बना रखा है। आज का मानव दिशा परिभ्रष्ट हो गया है, होता जा रहा है। विभिन्न प्रकार के घातक और भयंकर उपकरणों के मयार्दाहीन निर्माण ने जीवन की सुरक्षा को खतरे में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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