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सत्य दर्शन/१६३ 'किन्तु जो प्रतिज्ञा लेते देर नहीं करता और तोड़ते भी देर नहीं करता, प्रतिज्ञा भंग करते जिसे कोई विचार नहीं होता, वह महापापी है। इस प्रकार पहला पापी है और दूसरा महापापी है।
हाँ, परिस्थिति-वश कभी भूल हो सकती है और भूल होने पर जो उसे ठीक कर लेता है और अपनी प्रतिज्ञा के प्रति ईमानदार रहता है, वह साधक है-आराधक है।
चाहे कोई साधु हो या गृहस्थ, जैनधर्म प्रतिज्ञा लेते समय उसे विचार करने की आज्ञा देता है और अपनी समस्याओं को गहराई के साथ समझने की प्रेरणा करता है। वह कहता है कि उतावली न करो, बिना समझे-बूझे कोई काम न करो। तुम्हें जो प्रतिज्ञा लेनी है, उसके सम्बन्ध में अपनी शक्ति एवं योग्यता की जाँच कर लो, इसके बाद जब प्रतिज्ञा लो, तो उसके लिए सारा जीवन लगा दो और अपने सर्वस्व की बाजी लगा दो। अपनी पवित्र प्रतिज्ञा के लिए सारा जीवन होम दो और अपनी मान-प्रतिष्ठा को भी उस पर बलिदान कर दो।
इस रूप में सत्य का यही अर्थ होता है कि जो बोला है, उसे किया जाय, जो कहा है, उसका आचरण किया जाए। चाहे तुमने अकेले में प्रतिज्ञा की हो, चाहे हजारों के बीच में, उसका पूर्ण रूप से पालन करो।
कोई नियम ले लेना और उसका पालन करने की परवाह न करना उन्नति का मार्ग नहीं, पतन का मार्ग है। इस रूप में विचार करने से विदित होता है कि सत्य, जीवन का सबसे से बड़ा धर्म है। सचाई इतनी बड़ी सचाई है कि जीवन के प्रत्येक मैदान में उसकी तलाश करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि सत्य किसी कोने की चीज है
और जब अमुक जगह जाएँ, तो उसे उठा लिया करें और अन्यत्र जाएँ, तो उसे वहीं विराजमान करके जाएँ। . अगर आपने सत्य को ग्रहण कर लिया है, तो अपनी समस्त शक्तियाँ उसकी आराधना में लगा दो। क्षण-भर के लिए भी उससे विमुख होने का विचार न करो। सत्य को ही संसार में सर्वोपरि समझो। सत्य से बढ़कर फिर कोई दूसरी वस्तु आपके लिए स्पृहणीय नहीं होनी चाहिए। उसके प्रति पूरी प्रामाणिकता बरतनी चाहिए। यही सत्य के आचरण का आदर्श है और जो इस आदर्श का अनुसरण करेगा, उसी का जीवन खिले हए फल की तरह महक उठेगा।
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