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सत्य दर्शन / १६९
थी, परन्तु इस प्रख्याति ने उसे शास्त्रों के चिन्तन-मनन से विमुख बना दिया था। उधर नारद की प्रख्याति तो अधिक नहीं हो रही थी, किन्तु वह निरन्तर अपने जीवन को शास्त्रों के चिन्तन-मनन में लगाए रहता था। दोनों ही वेदों के नामी-गिरामी पण्डित कहे जाते थे।
एक बार नारद, पर्वत के घर उससे मिलने आया। पर्वत अपने घर पर शिष्यों को पढ़ाया करता था। नियत समय पर उसने पढ़ाना आरम्भ किया। नारद उसकी बगल में बैठा था। पढ़ाते-पढ़ाते एक वाक्य आया
"अजैर्यष्टव्यम्" पर्वत ने उसका अर्थ कर दिया-"अजों से अर्थात् बकरों से यज्ञ करना चाहिए।"
पर्वत का बतलाया अर्थ सुनकर नारद तिलमिला उठा। उससे चुप नहीं रहा गया। उसने कहा-"पर्वत, यह क्या कह रहे हो? जरा सोच-समझ कर बोलो। ऐसा अर्थ करने से घोर अनर्थ होगा। तुम्हारे जैसे विद्वान् ऐसा अर्थ करने लगेंगे, तो गजब हो जाएगा।"
और कोई अवसर होता, तो शायद पर्वत अपनी पर्वत-जैसी विशाल भूल को स्वीकार कर लेता, पर उसके सामने उसके शिष्य बैठे थे। अपनी भूल मान लेता, तो गौरव की क्षति होती। पण्डिताई में बट्टा लग जाने का उसे भय था। अतएव उसने अपनी बात पर दृढ़ रहते हुए कहा-"मैंने जो अर्थ बतलाया है, वही सच्चा अर्थ है। किसी भी कोष में देख लो, 'अंज' का अर्थ बकरा लिखा मिलेगा।" ___ नारद ने शान्ति और गम्भीरता से कहा-"भाई, तुम भूल कर रहे हो। गृहस्थ के घर जो क्रियाकाण्ड होता है, उसमें तीन वर्ष पुराने जौ, जिनमें उगने की शक्ति नहीं रह जाती, होम करने के काम आते हैं । 'अज' का अर्थ वही जौ हैं। यहाँ 'अज' शब्द का अर्थ बकरा नहीं है।"
पर्वत, पर्वत की ही तरह अपनी बात पर अचल रहा । उसने कहा-"नहीं, आपका मन्तव्य ठीक नहीं है और मैंने जो अर्थ बतलाया है, वही सही है। विश्वास न हो, तो हर किसी से पूछ लो।"
नारद बोला-"हर किसी से क्या पूछना है। हर कोई शास्त्रों की बातों की गंभीरता को नहीं समझता। हर कोई शास्त्रों का अध्ययन कर लेगा और निर्णय दे
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