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सत्य दर्शन/१६७ व्यक्तियों के निर्माण में ही समाज, राष्ट्र और विश्व का भी निर्माण निहित है। अतएव अगर आप अपना और अपने पड़ौसी का जीवन-निर्माण करते हैं, तो समाज और राष्ट्र के एक अंग का निर्माण करते हैं । तो आप इस बात को भूल जाइए कि राजा या राजनीतिज्ञ क्या कर रहे हैं, समाज के नेता किस सीमा तक असत्य का आचरण कर रहे हैं। उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ दीजिए। आप अपने ही जीवन के निर्माण में लग जाइए। आप सत्य का आचरण करने का अटल संकल्प कर लीजिए। अगर आपने ऐसा किया, तो आपका पड़ोसी, आपका मुहल्ला और आपका गाँव भी धीरे-धीरे आपका अनुकरण करने लगेगा।
कदाचित् ऐसा न हो और आप अकेले ही अपनी राह पर हों, तो भी डगमगाने की आवश्यकता नहीं। जिस पथ को आपने प्रशस्त समझ कर अपनाया है, उस पर अकेले चलने में भी क्या हर्ज है ?
व्यापार में धन कमाने की बात आती है, तो लोग सोचते हैं, अकेले मुझ को ही मुनाफा हो । जब अकेले को मुनाफा होता है, तो उसकी खुशी का पार नहीं रहता। औरों को भी मुनाफा होता है, तो उसे अधिक खुशी नहीं होती । मगर जहाँ धर्म के आचरण का प्रश्न आता है, तो वही कहता है-मैं अकेला ही धर्म का आचरण क्यों करूँ ? दुनियाँ असत्य का सेवन करती है, तो मुझ को ही क्या पड़ी है कि मैं सत्य का सेवन करूँ? वह भूल जाता है कि प्रत्येक की आत्मा का अलग-अलग अस्तित्व है और सब को अपने-अपने किए कर्मों का फल भुगतना पड़ता है।
कई लोग सोचते हैं कि जो सबका होगा, वह मेरा भी होगा। मैं कोई अकेला ही पाप थोड़े कर रहा हूँ ? ऐसे लोगों को शास्त्र ने गंभीर चेतावनी दी है। कहा है
"जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगभई। कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई ॥"
-उत्तराध्ययन, ५-७ 'जो अज्ञानी है, अविवेकी है, वही ऐसा सोचता है कि बहुतों को जो भुगतना पड़ेगा, वह मैं भी भुगत लूँगा। ऐसा मनुष्य क्लेश से बच नहीं सकता। उसके पापों का परिणाम, सब में थोड़ा-थोड़ा बँटने वाला नहीं है। उसे अकेले को ही अपने पाप का फल भोगना पड़ेगा।"
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