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सत्य दर्शन / १७१ पर्वत-"अच्छा, राजा बसु हम दोनों के सहपाठी हैं । हम उन्हीं से निर्णय कराएँगे। हम वादी-प्रतिवादी के रूप में उनके सामने जाएँगे। अगर उन्होंने आपके पक्ष में फैसला दे दिया, तो मैं अपनी जीभ कटवा लूँगा। अगर मेरे पक्ष में फैसला हुआ, तो आपको जीभ कटवानी होगी।"
यह तो पागल न्याय है। इसका मतलब यह है कि मनुष्य में सत्य को स्वीकार करने की तैयारी नहीं है, एक-दूसरे की जीभ काटने को वह तैयार हैं। और इस रूप में अपनी सत्ता को बर्बाद कर देने को तैयार हैं।
नारद बोला-"इसमें जीभ कटवाने की कोई बात नहीं है। ठीक है कि सत्य के लिए लोगों ने अपने जीवन की बलि दी है, पर यह प्रसंग ऐसा नहीं है। हम तो सत्य की रक्षा करते हुए भी अपने जीवन की रक्षा कर सकते हैं। हमें तो अपने-अपने अहंकार की जीभ काटनी है। जब प्राणों का बलिदान दिए बिना सत्य की रक्षा संभव न हो, तब वैसा करके भी सत्य की रक्षा करना आवश्यक हो जाता है।"
किन्तु, पर्वत नहीं माना। उसने यही कहा-"फैसला तभी कराएँगे, जब तक शर्त मंजूर कर ली जाए।
नारद को अपने पक्ष की सचाई में लेशमात्र सन्देह नहीं था। अपनी जीभ कट जाने का उसे भय नहीं था। मगर शास्त्रचिन्तन के क्षेत्र में इस प्रकार की कठोर शर्त रखना उसे अयोग्य प्रतीत होता था। मगर वह विवश था। पर्वत उसकी बात मानने को तैयार नहीं था। अतएव उसने भी यह शर्त स्वीकार कर ली। राजा के पास जाकर निर्णय करा लेने का समय नियत कर लिया गया।
पर्वत ने जब शास्त्रों की टीका-टिप्पणी देखी, तो उसे मालूम हुआ कि नारद की बात सच्ची है और मेरा पक्ष गलत है। मौत उसके सामने नाचने लगी। वह काँप उठा।
पर्वत की माता को यह बात मालूम हुई, तो उसने कहा-"तू ने शर्त ठीक नहीं की है, परन्तु मैं दबाव डाल कर या डलवा कर राजा वसु को तैयार कर दूंगी।" आखिर, उसने वसु पर दबाव डाला और बसु उसके दबाव में आ गया।
नियत समय पर दोनों विद्वान राजा के समक्ष उपस्थित हुए। वसु को आन्तरिक प्रसन्नता नहीं थी। उसका सत्यशील अन्तःकरण जैसे काटने दौड़ रहा था। वह
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