Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 187
________________ १७६ / सत्य दर्शन "गृहस्थ के सत्य - व्रत की मर्यादा यह है कि वह स्थूल असत्य भाषण स्वयं न करे और दूसरे से भी न कराए, साथ ही ऐसा सत्य भाषण भी न करे, जिससे दूसरों पर मुसीबत आ पड़ती हो। दूसरों पर विपत्ति देने वाला वचन हिंसा-कारक होने से सत्य की कोटि में नहीं आता ।" तात्पर्य यह है कि गृहस्थ के लिए सत्य की मर्यादाएँ हैं, किन्तु वे मर्यादाएँ मनचाही नहीं हैं। शास्त्रों में उन मर्यादाओं को स्थिर कर दिया गया है। उन मर्यादाओं की मुख्य कसौटी अहिंसा है। जहाँ अहिंसा व्रत का भंग होता है और हिंसा को उत्तेजना मिलती है, वहाँ गृहस्थ के लिए अपवाद है । इस अपवाद का हेतु, जैसा कि ऊपर संकेत कर दिया गया है, गृहस्थ की जीवनोत्सर्ग कर देने की अक्षमता ही है। वह सत्य के लिए अपना जीवन देने में समर्थ नहीं है इसी कारण उसके लिए कुछ छूट दी गई है। जिसमें वह क्षमता है, उसके लिए छूट देने का अथवा दी हुई छूट का उपयोग करने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। यही कारण है कि साधु के लिए सत्य के सम्बन्ध में कोई मर्यादा नहीं बाँधी गई है। साधु का जीवन उस उच्चतर स्तर पर पहुँचा होना चाहिए, जहाँ जीवन-सम्बन्धी ममता एवं आसक्ति की पहुँच नहीं होती। शास्त्र ने कहा भी है "अवि अप्पणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं ।" "साधु अपने शरीर को भी अपना नहीं समझते। शरीर रहे, भले रहे और जाए, तो भले जाए, उनके लिए दोनों बातें एक-सी हैं। " पाकिस्तान से आने वाले ओसवाल भाइयों ने एक घटना सुनाई थी। उनके घर के पास ही एक मुसलमान का घर था। उसमें एक बूढ़ा और एक बुढ़िया, कुल दो प्राणी रहते थे। वे हम लोगों को अपने बच्चों के समान समझते थे। जब गड़बड़ हुई और हमला होने का अंदेशा हुआ, तो हमारे घर की महिलाओं को उन्होंने अपने घर में छिपा लिया । वे बोले-हमला तुम्हारे घर पर होगा और हमारे घर पर सब सुरक्षित रह जाएँगी। हमला करने वाले गुण्डे आए। उन्होंने पूछा- कहाँ हैं तुम्हारे घर की औरतें और लड़कियाँ ? हमने उनसे कह दिया-यहाँ नहीं हैं। वे पड़ौसी मुसलमान के घर पहुँचे । उससे पूछा- तुमने जिन हिन्दू औरतों को छिपा रखा है, वे कहाँ हैं ? सच्ची-सच्ची कह दो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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